Drama Play Hindi, English & Hinglish

 प्रहसन
अंधेर नगरी चौपट्ट राजा
टके सेर भाजी टके सेर खाजा    
भारतेंदु हरिश्चंद्र



ग्रन्थ बनने का कारण।

बनारस में बंगालियों और हिन्दुस्तानियों ने मिलकर एक छोटा सा नाटक समाज दशाश्वमेध घाट पर नियत किया है, जिसका नाम हिंदू नैशनल थिएटर है। दक्षिण में पारसी और महाराष्ट्र नाटक वाले प्रायः अन्धेर नगरी का प्रहसन खेला करते हैं, किन्तु उन लोगों की भाषा और प्रक्रिया सब असंबद्ध होती है। ऐसा ही इन थिएटर वालों ने भी खेलना चाहा था और अपने परम सहायक भारतभूषण भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र से अपना आशय प्रकट किया। बाबू साहब ने यह सोचकर कि बिना किसी काव्य कल्पना के व बिना कोई उत्तम शिक्षा निकले जो नाटक खेला ही गया तो इसका फल क्या, इस कथा को काव्य में बाँध दिया। यह प्रहसन पूर्वोक्त बाबू साहब ने उस नाटक के पात्रों के अवस्थानुसार एक ही दिन में लिख दिया है। आशा है कि परिहासप्रिय रसिक जन इस से परितुष्ट होंगे। इति।

श्री रामदीन सिंह

समर्पण
मान्य योग्य नहिं होत कोऊ कोरो पद पाए।
मान्य योग्य नर ते, जे केवल परहित जाए ॥
जे स्वारथ रत धूर्त हंस से काक-चरित-रत।
ते औरन हति बंचि प्रभुहि नित होहिं समुन्नत ॥
जदपि लोक की रीति यही पै अन्त धम्म जय।
जौ नाहीं यह लोक तदापि छलियन अति जम भय ॥
नरसरीर में रत्न वही जो परदुख साथी।
खात पियत अरु स्वसत स्वान मंडुक अरु भाथी ॥
तासों अब लौं करो, करो सो, पै अब जागिय।
गो श्रुति भारत देस समुन्नति मैं नित लागिय ॥
साँच नाम निज करिय कपट तजि अन्त बनाइय।
नृप तारक हरि पद साँच बड़ाई पाइय ॥

ग्रन्थकार

छेदश्चन्दनचूतचंपकवने रक्षा करीरद्रुमे
हिंसा हंसमयूरकोकिलकुले काकेषुलीलारतिः
मातंगेन खरक्रयः समतुला कर्पूरकार्पासियो:
एषा यत्र विचारणा गुणिगणे देशाय तस्मै नमः


अंधेर नगरी चौपट्ट राजा
टके सेर भाजी टके सेर खाजा

प्रथम दृश्य

(वाह्य प्रान्त)
(महन्त जी दो चेलों के साथ गाते हुए आते हैं)
सब : राम भजो राम भजो राम भजो भाई।
राम के भजे से गनिका तर गई,
राम के भजे से गीध गति पाई।
राम के नाम से काम बनै सब,
राम के भजन बिनु सबहि नसाई ॥
राम के नाम से दोनों नयन बिनु
सूरदास भए कबिकुलराई।
राम के नाम से घास जंगल की,
तुलसी दास भए भजि रघुराई ॥
महन्त : बच्चा नारायण दास! यह नगर तो दूर से बड़ा सुन्दर दिखलाई पड़ता है! देख, कुछ भिच्छा उच्छा मिलै तो ठाकुर जी को भोग लगै। और क्या।
ना. दा : गुरु जी महाराज! नगर तो नारायण के आसरे से बहुत ही सुन्दर है जो सो, पर भिक्षा सुन्दर मिलै तो बड़ा आनन्द होय।
महन्त : बच्चा गोवरधन दास! तू पश्चिम की ओर से जा और नारायण दास पूरब की ओर जायगा। देख, जो कुछ सीधा सामग्री मिलै तो श्री शालग्राम जी का बालभोग सिद्ध हो।
गो. दा : गुरु जी! मैं बहुत सी भिच्छा लाता हूँ। यहाँ लोग तो बड़े मालवर दिखलाई पड़ते हैं। आप कुछ चिन्ता मत कीजिए।
महंत : बच्चा बहुत लोभ मत करना। देखना, हाँ।-
लोभ पाप का मूल है, लोभ मिटावत मान।
लोभ कभी नहीं कीजिए, यामैं नरक निदान ॥
(गाते हुए सब जाते हैं)


दूसरा दृश्य
(बाजार)
कबाबवाला : कबाब गरमागरम मसालेदार-चैरासी मसाला बहत्तर आँच का-कबाब गरमागरम मसालेदार-खाय सो होंठ चाटै, न खाय सो जीभ काटै। कबाब लो, कबाब का ढेर-बेचा टके सेर।
घासीराम : चने जोर गरम-
चने बनावैं घासीराम।
चना चुरमुर चुरमुर बौलै।
चना खावै तौकी मैना।
चना खायं गफूरन मुन्ना।
चना खाते सब बंगाली।
चना खाते मियाँ- जुलाहे।
चना हाकिम सब जो खाते।
चने जोर गरम-टके सेर।
नरंगीवाली : नरंगी ले नरंगी-सिलहट की नरंगी, बुटबल की नरंगी, रामबाग की नरंगी, आनन्दबाग की नरंगी। भई नीबू से नरंगी। मैं तो पिय के रंग न रंगी। मैं तो भूली लेकर संगी। नरंगी ले नरंगी। कैवला नीबू, मीठा नीबू, रंगतरा संगतरा। दोनों हाथों लो-नहीं पीछे हाथ ही मलते रहोगे। नरंगी ले नरंगी। टके सेर नरंगी।
हलवाई : जलेबियां गरमा गरम। ले सेब इमरती लड्डू गुलाबजामुन खुरमा बुंदिया बरफी समोसा पेड़ा कचैड़ी दालमोट पकौड़ी घेवर गुपचुप। हलुआ हलुआ ले हलुआ मोहनभोग। मोयनदार कचैड़ी कचाका हलुआ नरम चभाका। घी में गरक चीनी में तरातर चासनी में चभाचभ। ले भूरे का लड्डू। जो खाय सो भी पछताय जो न खाय सो भी पछताय। रेबडी कड़ाका। पापड़ पड़ाका। ऐसी जात हलवाई जिसके छत्तिस कौम हैं भाई। जैसे कलकत्ते के विलसन मन्दिर के भितरिए, वैसे अंधेर नगरी के हम। सब समान ताजा। खाजा ले खाजा। टके सेर खाजा।
कुजड़िन : ले धनिया मेथी सोआ पालक चैराई बथुआ करेमूँ नोनियाँ कुलफा कसारी चना सरसों का साग। मरसा ले मरसा। ले बैगन लौआ कोहड़ा आलू अरूई बण्डा नेनुआँ सूरन रामतरोई तोरई मुरई ले आदी मिरचा लहसुन पियाज टिकोरा। ले फालसा खिरनी आम अमरूद निबुहा मटर होरहा। जैसे काजी वैसे पाजी। रैयत राजी टके सेर भाजी। ले हिन्दुस्तान का मेवा फूट और बैर।
मुगल : बादाम पिस्ते अखरोट अनार विहीदाना मुनक्का किशमिश अंजीर आबजोश आलूबोखारा चिलगोजा सेब नाशपाती बिही सरदा अंगूर का पिटारी। आमारा ऐसा मुल्क जिसमें अंगरेज का भी दाँत खट्टा ओ गया। नाहक को रुपया खराब किया। हिन्दोस्तान का आदमी लक लक हमारे यहाँ का आदमी बुंबक बुंबक लो सब मेवा टके सेर।
पाचकवाला :
चूरन अमल बेद का भारी। जिस को खाते कृष्ण मुरारी ॥
मेरा पाचक है पचलोना।
चूरन बना मसालेदार।
मेरा चूरन जो कोई खाय।
हिन्दू चूरन इस का नाम।
चूरन जब से हिन्द में आया।
चूरन ऐसा हट्टा कट्टा।
चूरन चला डाल की मंडी।
चूरन अमले सब जो खावैं।
चूरन नाटकवाले खाते।
चूरन सभी महाजन खाते।
चूरन खाते लाला लोग।
चूरन खावै एडिटर जात।
चूरन साहेब लोग जो खाता।
चूरन पूलिसवाले खाते।
ले चूरन का ढेर, बेचा टके सेर ॥
मछलीवाली : मछली ले मछली।
मछरिया एक टके कै बिकाय।
लाख टका के वाला जोबन, गांहक सब ललचाय।
नैन मछरिया रूप जाल में, देखतही फँसि जाय।
बिनु पानी मछरी सो बिरहिया, मिले बिना अकुलाय।
जातवाला : (ब्राह्मण)।-जात ले जात, टके सेर जात। एक टका दो, हम अभी अपनी जात बेचते हैं। टके के वास्ते ब्राहाण से धोबी हो जाँय और धोबी को ब्राह्मण कर दें टके के वास्ते जैसी कही वैसी व्यवस्था दें। टके के वास्ते झूठ को सच करैं। टके के वास्ते ब्राह्मण से मुसलमान, टके के वास्ते हिंदू से क्रिस्तान। टके के वास्ते धर्म और प्रतिष्ठा दोनों बेचैं, टके के वास्ते झूठी गवाही दें। टके के वास्ते पाप को पुण्य मानै, बेचैं, टके वास्ते नीच को भी पितामह बनावैं। वेद धर्म कुल मरजादा सचाई बड़ाई सब टके सेर। लुटाय दिया अनमोल माल ले टके सेर।
बनिया : आटा- दाल लकड़ी नमक घी चीनी मसाला चावल ले टके सेर।
(बाबा जी का चेला गोबर्धनदास आता है और सब बेचनेवालों की आवाज सुन सुन कर खाने के आनन्द में बड़ा प्रसन्न होता है।)
गो. दा. : क्यों भाई बणिये, आटा कितणे सेर?
बनियां : टके सेर।
गो. दा. : औ चावल?
बनियां : टके सेर।
गो. दा. : औ चीनी?
बनियां : टके सेर।
गो. दा. : औ घी?
बनियां : टके सेर।
गो. दा. : सब टके सेर। सचमुच।
बनियां : हाँ महाराज, क्या झूठ बोलूंगा।
गो. दा. : (कुंजड़िन के पास जाकर) क्यों भाई, भाजी क्या भाव?
कुंजड़िन : बाबा जी, टके सेर। निबुआ मुरई धनियां मिरचा साग सब टके सेर।
गो. दा. : सब भाजी टके सेर। वाह वाह! बड़ा आनंद है। यहाँ सभी चीज टके सेर। (हलवाई के पास जाकर) क्यों भाई हलवाई? मिठाई कितणे सेर?
हलवाई : बाबा जी! लडुआ हलुआ जलेबी गुलाबजामुन खाजा सब टके सरे।
गो. दा. : वाह! वाह!! बड़ा आनन्द है? क्यों बच्चा, मुझसे मसखरी तो नहीं करता? सचमुच सब टके सेर?
हलवाई : हां बाबा जी, सचमुच सब टके सेर? इस नगरी की चाल ही यही है। यहाँ सब चीज टके सेर बिकती है।
गो. दा. : क्यों बच्चा! इस नगर का नाम क्या है?
हलवाई : अंधेरनगरी।
गो. दा. : और राजा का क्या नाम है?
हलवाई : चौपट राजा।
गौ. दा. : वाह! वाह! अंधेर नगरी चौपट राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा (यही गाता है और आनन्द से बिगुल बजाता है)।
हलवाई : तो बाबा जी, कुछ लेना देना हो तो लो दो।
गो. दो. : बच्चा, भिक्षा माँग कर सात पैसे लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई दे दे, गुरु चेले सब आनन्दपूर्वक इतने में छक जायेंगे।
(हलवाई मिठाई तौलता है-बाबा जी मिठाई लेकर खाते हुए और अंधेर नगरी गाते हुए जाते हैं।)
(पटाक्षेप)



तीसरा दृश्य
(स्थान जंगल)
(महन्त जी और नारायणदास एक ओर से ‘राम भजो इत्यादि गीत गाते हुए आते हैं और एक ओर से गोबवर्धनदास अन्धेरनगरी गाते हुए आते हैं’)
महन्त : बच्चा गोवर्धन दास! कह क्या भिक्षा लाया? गठरी तो भारी मालूम पड़ती है।
गो. दा. : बाबा जी महाराज! बड़े माल लाया हँ, साढ़े तीन सेर मिठाई है।
महन्त : देखूँ बच्चा! (मिठाई की झोली अपने सामने रख कर खोल कर देखता है) वाह! वाह! बच्चा! इतनी मिठाई कहाँ से लाया? किस धर्मात्मा से भेंट हुई?
गो. दा. : गुरूजी महाराज! सात पैसे भीख में मिले थे, उसी से इतनी मिठाई मोल ली है।
महन्त : बच्चा! नारायण दास ने मुझसे कहा था कि यहाँ सब चीज टके सेर मिलती है, तो मैंने इसकी बात का विश्वास नहीं किया। बच्चा, वह कौन सी नगरी है और इसका कौन सा राजा है, जहां टके सेर भाजी और टके ही सेर खाजा है?
गो. दा. : अन्धेरनगरी चौपट्ट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।
महन्त : तो बच्चा! ऐसी नगरी में रहना उचित नहीं है, जहाँ टके सेर भाजी और टके ही सेर खाजा हो।
दोहा : सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास।
ऐसे देस कुदेस में कबहुँ न कीजै बास ॥
कोकिला बायस एक सम, पंडित मूरख एक।
इन्द्रायन दाड़िम विषय, जहाँ न नेकु विवेकु ॥
बसिए ऐसे देस नहिं, कनक वृष्टि जो होय।
रहिए तो दुख पाइये, प्रान दीजिए रोय ॥
सो बच्चा चलो यहाँ से। ऐसी अन्धेरनगरी में हजार मन मिठाई मुफ्त की मिलै तो किस काम की? यहाँ एक छन नहीं रहना।
गो. दा. : गुरू जी, ऐसा तो संसार भर में कोई देस ही नहीं हैं। दो पैसा पास रहने ही से मजे में पेट भरता है। मैं तो इस नगर को छोड़ कर नहीं जाऊँगा। और जगह दिन भर मांगो तो भी पेट नहीं भरता। वरंच बाजे बाजे दिन उपास करना पड़ता है। सो मैं तो यही रहूँगा।
महन्त : देख बच्चा, पीछे पछतायगा।
गो. दा. : आपकी कृपा से कोई दुःख न होगा; मैं तो यही कहता हूँ कि आप भी यहीं रहिए।
महन्त : मैं तो इस नगर में अब एक क्षण भर नहीं रहूंगा। देख मेरी बात मान नहीं पीछे पछताएगा। मैं तो जाता हूं, पर इतना कहे जाता हूं कि कभी संकट पड़ै तो हमारा स्मरण करना।
गो. दा. : प्रणाम गुरु जी, मैं आपका नित्य ही स्मरण करूँगा। मैं तो फिर भी कहता हूं कि आप भी यहीं रहिए।
महन्त जी नारायण दास के साथ जाते हैं; गोवर्धन दास बैठकर मिठाई खाता है।,
(पटाक्षेप)



चौथा दृश्य
(राजसभा)
(राजा, मन्त्री और नौकर लोग यथास्थान स्थित हैं)
1 सेवक : (चिल्लाकर) पान खाइए महाराज।
राजा : (पीनक से चैंक घबड़ाकर उठता है) क्या? सुपनखा आई ए महाराज। (भागता है)।
मन्त्री : (राजा का हाथ पकड़कर) नहीं नहीं, यह कहता है कि पान खाइए महाराज।
राजा : दुष्ट लुच्चा पाजी! नाहक हमको डरा दिया। मन्त्री इसको सौ कोडे लगैं।
मन्त्री : महाराज! इसका क्या दोष है? न तमोली पान लगाकर देता, न यह पुकारता।
राजा : अच्छा, तमोली को दो सौ कोड़े लगैं।
मन्त्री : पर महाराज, आप पान खाइए सुन कर थोडे ही डरे हैं, आप तो सुपनखा के नाम से डरे हैं, सुपनखा की सजा हो।
राजा : (घबड़ाकर) फिर वही नाम? मन्त्री तुम बड़े खराब आदमी हो। हम रानी से कह देंगे कि मन्त्री बेर बेर तुमको सौत बुलाने चाहता है। नौकर! नौकर! शराब।
2 नौकर : (एक सुराही में से एक गिलास में शराब उझल कर देता है।) लीजिए महाराज। पीजिए महाराज।
राजा : (मुँह बनाकर पीता है) और दे।
(नेपथ्य में-दुहाई है दुहाई-का शब्द होता है।)
कौन चिल्लाता है-पकड़ लाओ।
(दो नौकर एक फरियादी को पकड़ लाते हैं)
फ. : दोहाई है महाराज दोहाई है। हमारा न्याव होय।
राजा : चुप रहो। तुम्हारा न्याव यहाँ ऐसा होगा कि जैसा जम के यहाँ भी न होगा। बोलो क्या हुआ?
फ. : महाराजा कल्लू बनिया की दीवार गिर पड़ी सो मेरी बकरी उसके नीचे दब गई। दोहाई है महाराज न्याय हो।
राजा : (नौकर से) कल्लू बनिया की दीवार को अभी पकड़ लाओ।
मन्त्राी : महाराज, दीवार नहीं लाई जा सकती।
राजा : अच्छा, उसका भाई, लड़का, दोस्त, आशना जो हो उसको पकड़ लाओ।
मन्त्राी : महाराज! दीवार ईंट चूने की होती है, उसको भाई बेटा नहीं होता।
राजा : अच्छा कल्लू बनिये को पकड़ लाओ।
(नौकर लोग दौड़कर बाहर से बनिए को पकड़ लाते हैं) क्यों बे बनिए! इसकी लरकी, नहीं बरकी क्यों दबकर मर गई?
मन्त्री : बरकी नहीं महाराज, बकरी।
राजा : हाँ हाँ, बकरी क्यों मर गई-बोल, नहीं अभी फाँसी देता हूँ।
कल्लू : महाराज! मेरा कुछ दोष नहीं। कारीगर ने ऐसी दीवार बनाया कि गिर पड़ी।
राजा : अच्छा, इस मल्लू को छोड़ दो, कारीगर को पकड़ लाओ। (कल्लू जाता है, लोग कारीगर को पकड़ लाते हैं) क्यों बे कारीगर! इसकी बकरी किस तरह मर गई?
कारीगर : महाराज, मेरा कुछ कसूर नहीं, चूनेवाले ने ऐसा बोदा बनाया कि दीवार गिर पड़ी।
राजा : अच्छा, इस कारीगर को बुलाओ, नहीं नहीं निकालो, उस चूनेवाले को बुलाओ।
(कारीगर निकाला जाता है, चूनेवाला पकड़कर लाया जाता है) क्यों बे खैर सुपाड़ी चूनेवाले! इसकी कुबरी कैसे मर गई?
चूनेवाला : महाराज! मेरा कुछ दोष नहीं, भिश्ती ने चूने में पानी ढेर दे दिया, इसी से चूना कमजोर हो गया होगा।
राजा : अच्छा चुन्नीलाल को निकालो, भिश्ती को पकड़ो। (चूनेवाला निकाला जाता है भिश्ती, भिश्ती लाया जाता है) क्यों वे भिश्ती! गंगा जमुना की किश्ती! इतना पानी क्यों दिया कि इसकी बकरी गिर पड़ी और दीवार दब गई।
भिश्ती : महाराज! गुलाम का कोई कसूर नहीं, कस्साई ने मसक इतनी बड़ी बना दिया कि उसमें पानी जादे आ गया।
राजा : अच्छा, कस्साई को लाओ, भिश्ती निकालो।
(लोग भिश्ती को निकालते हैं और कस्साई को लाते हैं)
क्यौं बे कस्साई मशक ऐसी क्यौं बनाई कि दीवार लगाई बकरी दबाई?
कस्साई : महाराज! गड़ेरिया ने टके पर ऐसी बड़ी भेंड़ मेरे हाथ बेंची की उसकी मशक बड़ी बन गई।
राजा : अच्छा कस्साई को निकालो, गड़ेरिये को लाओ।
(कस्साई निकाला जाता है गंडे़रिया आता है)
क्यों बे ऊखपौड़े के गंडेरिया। ऐसी बड़ी भेड़ क्यौं बेचा कि बकरी मर गई?
गड़ेरिया : महाराज! उधर से कोतवाल साहब की सवारी आई, सो उस के देखने में मैंने छोटी बड़ी भेड़ का ख्याल नहीं किया, मेरा कुछ कसूर नहीं।
राजा : अच्छा, इस को निकालो, कोतवाल को अभी सरबमुहर पकड़ लाओ।
(गंड़ेरिया निकाला जाता है, कोतवाल पकड़ा जाता है) क्यौं बे कोतवाल! तैंने सवारी ऐसी धूम से क्यों निकाली कि गड़ेरिये ने घबड़ा कर बड़ी भेड़ बेचा, जिस से बकरी गिर कर कल्लू बनियाँ दब गया?
कोतवाल : महाराज महाराज! मैंने तो कोई कसूर नहीं किया, मैं तो शहर के इन्तजाम के वास्ते जाता था।
मंत्री : (आप ही आप) यह तो बड़ा गजब हुआ, ऐसा न हो कि बेवकूफ इस बात पर सारे नगर को फूँक दे या फाँसी दे। (कोतवाल से) यह नहीं, तुम ने ऐसे धूम से सवारी क्यौं निकाली?
राजा : हाँ हाँ, यह नहीं, तुम ने ऐसे धूम से सवारी कयों निकाली कि उस की बकरी दबी।
कोतवाल : महाराज महाराज
राजा : कुछ नहीं, महाराज महाराज ले जाओ, कोतवाल को अभी फाँसी दो। दरबार बरखास्त।
(लोग एक तरफ से कोतवाल को पकड़ कर ले जाते हैं, दूसरी ओर से मंत्री को पकड़ कर राजा जाते हैं)
(पटाक्षेप)


पांचवां दृश्य
(अरण्य)
(गोवर्धन दास गाते हुए आते हैं)
(राग काफी)
अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥
नीच ऊँच सब एकहि ऐसे। जैसे भड़ुए पंडित तैसे॥
कुल मरजाद न मान बड़ाई। सबैं एक से लोग लुगाई॥
जात पाँत पूछै नहिं कोई। हरि को भजे सो हरि को होई॥
वेश्या जोरू एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना॥
सांचे मारे मारे डाल। छली दुष्ट सिर चढ़ि चढ़ि बोलैं॥
प्रगट सभ्य अन्तर छलहारी। सोइ राजसभा बलभारी ॥
सांच कहैं ते पनही खावैं। झूठे बहुविधि पदवी पावै ॥
छलियन के एका के आगे। लाख कहौ एकहु नहिं लागे ॥
भीतर होइ मलिन की कारो। चहिये बाहर रंग चटकारो ॥
धर्म अधर्म एक दरसाई। राजा करै सो न्याव सदाई ॥
भीतर स्वाहा बाहर सादे। राज करहिं अमले अरु प्यादे ॥
अंधाधुंध मच्यौ सब देसा। मानहुँ राजा रहत बिदेसा ॥
गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई। मानहुँ नृपति बिधर्मी कोई ॥
ऊँच नीच सब एकहि सारा। मानहुँ ब्रह्म ज्ञान बिस्तारा ॥
अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा ॥

गुरु जी ने हमको नाहक यहाँ रहने को मना किया था। माना कि देस बहुत बुरा है। पर अपना क्या? अपने किसी राजकाज में थोड़े हैं कि कुछ डर है, रोज मिठाई चाभना, मजे में आनन्द से राम-भजन करना।
(मिठाई खाता है)
(चार प्यादे चार ओर से आ कर उस को पकड़ लेते हैं)
1. प्या. : चल बे चल, बहुत मिठाई खा कर मुटाया है। आज पूरी हो गई।
2. प्या. : बाबा जी चलिए, नमोनारायण कीजिए।
गो. दा. : (घबड़ा कर) हैं! यह आफत कहाँ से आई! अरे भाई, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो मुझको पकड़ते हौ।
1. प्या. : आप ने बिगाड़ा है या बनाया है इस से क्या मतलब, अब चलिए। फाँसी चढ़िए।
गो. दा. : फाँसी। अरे बाप रे बाप फाँसी!! मैंने किस की जमा लूटी है कि मुझ को फाँसी! मैंने किस के प्राण मारे कि मुझ को फाँसी!
2. प्या. : आप बड़े मोटे हैं, इस वास्ते फाँसी होती है।
गो. दा. : मोटे होने से फाँसी? यह कहां का न्याय है! अरे, हंसी फकीरों से नहीं करनी होती।
1. प्या. : जब सूली चढ़ लीजिएगा तब मालूम होगा कि हंसी है कि सच। सीधी राह से चलते हौ कि घसीट कर ले चलें?
गो. दा. : अरे बाबा, क्यों बेकसूर का प्राण मारते हौ? भगवान के यहाँ क्या जवाब दोगे?
1. प्या. : भगवान् को जवाब राजा देगा। हम को क्या मतलब। हम तो हुक्मी बन्दे हैं।
गो. दा. : तब भी बाबा बात क्या है कि हम फकीर आदमी को नाहक फाँसी देते हौ?
1. प्या. : बात है कि कल कोतवाल को फाँसी का हुकुम हुआ था। जब फाँसी देने को उस को ले गए, तो फाँसी का फंदा बड़ा हुआ, क्योंकि कोतवाल साहब दुबले हैं। हम लोगों ने महाराज से अर्ज किया, इस पर हुक्म हुआ कि एक मोटा आदमी पकड़ कर फाँसी दे दो, क्योंकि बकरी मारने के अपराध में किसी न किसी की सजा होनी जरूर है, नहीं तो न्याव न होगा। इसी वास्ते तुम को ले जाते हैं कि कोतवाल के बदले तुमको फाँसी दें।
गो. दा. : तो क्या और कोई मोटा आदमी इस नगर भर में नहीं मिलता जो मुझ अनाथ फकीर को फाँसी देते हैं!
1. प्या. : इस में दो बात है-एक तो नगर भर में राजा के न्याव के डर से कोई मुटाता ही नहीं, दूसरे और किसी को पकड़ैं तो वह न जानैं क्या बात बनावै कि हमी लोगों के सिर कहीं न घहराय और फिर इस राज में साधु महात्मा इन्हीं लोगों की तो दुर्दशा है, इस से तुम्हीं को फाँसी देंगे।
गो. दा. : दुहाई परमेश्वर की, अरे मैं नाहक मारा जाता हूँ! अरे यहाँ बड़ा ही अन्धेर है, अरे गुरु जी महाराज का कहा मैंने न माना उस का फल मुझ को भोगना पड़ा। गुरु जी कहां हौ! आओ, मेरे प्राण बचाओ, अरे मैं बेअपराध मारा जाता हूँ गुरु जी गुरु जी-
(गोबर्धन दास चिल्लाता है,
प्यादे लोग उस को पकड़ कर ले जाते हैं)
(पटाक्षेप)



छठा दृश्य
(स्थान श्मशान)
(गोबर्धन दास को पकड़े हुए चार सिपाहियों का प्रवेश)
गो. दा. : हाय बाप रे! मुझे बेकसूर ही फाँसी देते हैं। अरे भाइयो, कुछ तो धरम विचारो! अरे मुझ गरीब को फाँसी देकर तुम लोगों को क्या लाभ होगा? अरे मुझे छोड़ दो। हाय! हाय! (रोता है और छुड़ाने का यत्न करता है)
1 सिपाही : अबे, चुप रह-राजा का हुकुम भला नहीं टल सकता है? यह तेरा आखिरी दम है, राम का नाम ले-बेफाइदा क्यों शोर करता है? चुप रह-
गो. दा. : हाय! मैं ने गुरु जी का कहना न माना, उसी का यह फल है। गुरु जी ने कहा था कि ऐसे-नगर में न रहना चाहिए, यह मैंने न सुना! अरे! इस नगर का नाम ही अंधेरनगरी और राजा का नाम चौपट्ट है, तब बचने की कौन आशा है। अरे! इस नगर में ऐसा कोई धर्मात्मा नहीं है जो फकीर को बचावै। गुरु जी! कहाँ हौ? बचाओ-गुरुजी-गुरुजी-(रोता है, सिपाही लोग उसे घसीटते हुए ले चलते हैं)
(गुरु जी और नारायण दास आरोह)
गुरु. : अरे बच्चा गोबर्धन दास! तेरी यह क्या दशा है?
गो. दा. : (गुरु को हाथ जोड़कर) गुरु जी! दीवार के नीचे बकरी दब गई, सो इस के लिये मुझे फाँसी देते हैं, गुरु जी बचाओ।
गुरु. : अरे बच्चा! मैंने तो पहिले ही कहा था कि ऐसे नगर में रहना ठीक नहीं, तैंने मेरा कहना नहीं सुना।
गो. दा. : मैंने आप का कहा नहीं माना, उसी का यह फल मिला। आप के सिवा अब ऐसा कोई नहीं है जो रक्षा करै। मैं आप ही का हूँ, आप के सिवा और कोई नहीं (पैर पकड़ कर रोता है)।
महन्त : कोई चिन्ता नहीं, नारायण सब समर्थ है। (भौं चढ़ाकर सिपाहियों से) सुनो, मुझ को अपने शिष्य को अन्तिम उपदेश देने दो, तुम लोग तनिक किनारे हो जाओ, देखो मेरा कहना न मानोगे तो तुम्हारा भला न होगा।
सिपाही : नहीं महाराज, हम लोग हट जाते हैं। आप बेशक उपदेश कीजिए।
(सिपाही हट जाते हैं। गुरु जी चेले के कान में कुछ समझाते हैं)
गो. दा. : (प्रगट) तब तो गुरु जी हम अभी फाँसी चढ़ेंगे।
महन्त : नहीं बच्चा, मुझको चढ़ने दे।
गो. दा. : नहीं गुरु जी, हम फाँसी पड़ेंगे।
महन्त : नहीं बच्चा हम। इतना समझाया नहीं मानता, हम बूढ़े भए, हमको जाने दे।
गो. दा. : स्वर्ग जाने में बूढ़ा जवान क्या? आप तो सिद्ध हो, आपको गति अगति से क्या? मैं फाँसी चढूँगा।
(इसी प्रकार दोनों हुज्जत करते हैं-सिपाही लोग परस्पर चकित होते हैं)
1 सिपाही : भाई! यह क्या माजरा है, कुछ समझ में नहीं पड़ता।
2 सिपाही : हम भी नहीं समझ सकते हैं कि यह कैसा गबड़ा है।
(राजा, मंत्री कोतवाल आते हैं)
राजा : यह क्या गोलमाल है?
1 सिपाही : महाराज! चेला कहता है मैं फाँसी पड़ूंगा, गुरु कहता है मैं पड़ूंगा; कुछ मालूम नहीं पड़ता कि क्या बात है?
राजा : (गुरु से) बाबा जी! बोलो। काहे को आप फाँसी चढ़ते हैं?
महन्त : राजा! इस समय ऐसा साइत है कि जो मरेगा सीधा बैकुंठ जाएगा।
मंत्री : तब तो हमी फाँसी चढ़ेंगे।
गो. दा. : हम हम। हम को तो हुकुम है।
कोतवाल : हम लटकैंगे। हमारे सबब तो दीवार गिरी।
राजा : चुप रहो, सब लोग, राजा के आछत और कौन बैकुण्ठ जा सकता है। हमको फाँसी चढ़ाओ, जल्दी जल्दी।
महन्त :
जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज।
ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥
(राजा को लोग टिकठी पर खड़ा करते हैं)


(पटाक्षेप)
॥ इति ॥










  नीलदेवी
  भारतेंदु हरिश्चंद्र

 





।। ऐतिहासिक गीतिरूपक ।



‘गर्ज गर्ज क्षणं मूढ़ मधु यावत्पिवाम्यहं।
मयात्वयिहतेऽत्रैव गर्जिष्यन्याशु देवताः।: ’
‘त्रैलोक्यमिन्द्रो लभतां देवाः सन्तु हविर्भुजः।
यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ ।।’
‘इत्थं सदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति।
तदातदाऽवतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ।।
‘स्त्रियः सस्ताः सकलाः जगत्सु त्वयैका पूरितमम्बमेतत्,
नाटकस्थ पात्रगण
सूर्य देव : पंजाब प्रान्त का राजा।
सोमदेव : सूर्यदेव का पुत्र।
अब्दुश्शरीफ खाँ सूर : दिल्ली के बादशाह का सिपहसालार।
बसन्त : पागल बना हुआ महाराज सूर्यदेव का नौकर।
पं. विष्णु शर्मा : मौलवी के भेष में राजा का पंडित।
नीलदेवी : महाराज सूर्यदेव की रानी।
चपरगटटू और पीकदान अली दो मुफ्तखोरे।
देवसिंह इत्यादि सिपाही, राजपूत सर्दार।
मुसल्मान मुसाहिब, काजी, भटियारी, देवता, अप्सरा इत्यादि
मातृ भगिनी सखी तुल्या आर्य ललना गण।
आज बड़ा दिन है। क्रिस्तान लोगों को इससे बढ़कर कोई आनन्द का दिन नहीं है। किन्तु मुझ को आज उलटा और दुख है। इस कारण मनुष्य स्वभाव सुलभ ईर्षा मात्र है। मैं कोई सिद्ध नहीं कि रागद्वेषू से विहीन हूँ। जब मुझे अंगरेजी रमणी लोग मेदसिंचित केश राशि कृतृम (त्रि?) कुन्तलजूट, मिथ्या रत्नाभरण और विविध वर्ण वसन से भूषित क्षीण कटि देश कसे, निज निज पति गण के साथ, प्रसन्न बदन इधर से उधर फर फर कल की पुतली की भाँति फिरती हुई दिखलाई पड़ती हैं तब इस देश की सीधी साधी स्त्रियों की हीन अवस्था मुझको स्मरण आती है और यही बात मेरे दुख का कारण होती है। इससे यह शंका किसी को न हो कि मैं स्वप्न में भी यह इच्छा करता हूँ कि इन गौरांगी युवती समूह की भाँति हमारी कुललक्ष्मी गण भी लज्जा को तिलांजलि देकर अपने पति के साथ घूमै; किंतु और बातों में जिस भांति अंगरेजी स्त्रियाँ सावधान होती हैं, पढ़ी लिखी होती हैं, घर का काम काज सम्हालती हैं, अपने संतान गण को शीक्षा (शि?) देती हैं, अपना स्वत्व पहचानती हैं, अपनी जाति और अपने देश की सम्पत्ति विपत्ति को समझती हैं, उसमें सहाय देती हैं, और इतने समुन्नत मनुष्य जीवन को व्यर्थ ग्रह (गृ?) दास्य और कलह ही में नहीं खोतीं उसी भाँति हमारी गृह देवता भी वत्र्तमान हीनावस्था को उल्लंघन करके कुछ उन्नति प्राप्त करें, यही लालसा है। इस उन्नति पथ की अवरोधक हम लोगों की वर्तमान कुल परंपरा मात्र है और कुछ नहीं है। आय्र्य जन मात्र को विश्वास है कि हमारे यहाँ सव्र्वदा स्त्रीगण इसी अवस्था में थीं। इस विश्वास को भ्रम को दूर करने ही के हेतु यह ग्रंथ विरचित हो कर आप लोगों के कोमल कर कमलों में समर्पित होता है। निवेदन यही है कि आप लोग इन्हीं पुण्यरूप स्त्रियों के चरित्र को पढें, सुनें और क्रम से यथा शक्ति अपनी वृद्धि करें।
25 दिसंबर 1881 गं्रथकत्र्ता

नीलदेवी

ऐतिहासिक गीतिरूपक

वियोगांत
प्रथम दृश्य
हिमगिरि का शिखर
(तीन अप्सरा गान करती हुई दिखाई देती हैं)
अप्सरागण.. (झिंझोटी जल्द तिताला)
धन धन भारत की छत्रनी।
वीरकन्यका वीरप्रसविनी वीरवधू जग जानी।।
सती सिरोमनि धरमधुरन्धर बुधि बल धीरज खानी।
इन के जस की तिहँू लोक में अमल धुजा फहरानी ।।
सब मिलि गाओ प्रेम बधाई।
यह संसार रतन इक प्रेमहिं और बादि चतुराई ।।
प्रेम बिना फीकी सब बातैं कहहु न लाख बनाई।
जोग ध्यान जप तप व्रत पूजा प्रेम बिना बिनसाई ।।
हाव भाव रस रंग रीति बहु काव्य केलि कुसलाई।
बिना लोन विंजन सो सबही प्रेम रहित दरसाई ।।
प्रेमहि सो हरिहू प्रगटत हैं जदपि ब्रह्म जगराई।
तासों यह जग प्रेमसार है और न आन उपाई ।।

दूसरा दृश्य
युद्ध के डेरे खड़े हैं।
एक शामियाने के नीचे अमीर अबदुश्शरीफ खाँ सूर बैठा है और मुसाहिब लोग इर्द गिर्द बैठे हैं।
शरीफ : एक मुसाहिब से, अबदुस्समद! खूब होशियारी से रहना। यहाँ के राजपूत बड़े काफिर हैं। इन कमबख्तों से खुदा बचाए। ख्दूसरे मुसाहिब से, मलिक सज्जाद! तुम शव के पहरों का इन्तिजाम अपने जिम्में रक्खो न हो कि सूरजदेव शबेखून मारे। ख्काजी से, काजी साहब! मैं आप से क्या बयान करूँ, वल्लाही सूरजदेव एक ही बदबला है। इहातए पंजाब में ऐसा बहादुर दूसरा नहीं।
काजी : बेशक हुजूर! सुना गया है कि वह हमेशा खेमों ही में रहता है। आसमान शामियाना और जमीन ही उसे फर्श है। हजारों राजपूत उसे हरवक्त घेरे रहते हैं।
शरीफ : वल्लाह तुमने सच कहा, अजब बदकिरदार से पाला पड़ा, जाना तंग है। किसी तरह यह कमबख्त हाथ आता तो और राजपूत खुद बखुद पस्त हो जाते।
1 मुसाहिब: खुदाबन्द! हाथ आना दूर रहा उसके खौफ से अपने खेमे में रह कर भी खाना सोना हराम हो रहा है।
शरीफ : कभी उस बेईमान से सामने लड़ कर फष्तह नहीं मिलनी है। मैंने तो अब जी में ठान ली है कि मौका पाकर एक शब उसको सोते हुए गिरफ्तार कर लाना। और अगर खुदा को इस्लाम की रोशनी का जिल्वा हिन्दोस्तान जुल्मत निशान में दिखलाना मंजूर है तो बेशक मेरी मुराद बर आएगी।
काजी : इन्शा अल्लाह तआला।
शरीफ : कसम है कलामे शरीफ को मेरी खुराक आगे से इस तफक्कुर में आधी हो गई है। सब लोगों से, देखो अब मैं सोने जाता हूँ तुम सब लोग होशियार रहना।
गजल,
उठ कर सब की तरफ देख कर,
इस राजपूत से रहो हुशियार खबरदार।
गफलत न जष्रा भी हो खबरदार खबरदार ।।
ईमाँ की कसम दुश्मने जानी है हमारा।
काफिर है य पंजाब का सरदार है खबरदार ।।
अजदर है भभूका है जहन्नुम है बला है।
बिजली है गजब इसकी है तलवार खबरदार ।।
दरबार में वह तेग़े शररवार न चमके।
घरबार से बाहर से भी हर बार खबरदार ।।
इस दुश्मने ईमाँ को है धोखे से फँसाना।
लड़ना न मुकाबिल कभी जिनहार खबरदार ।।
(सब जाते हैं)



तीसरा दृश्य
पहाड़ की तराई
(राजा सूर्यदेव, रानी नीलदेवी और चार राजपूत बैठे हैं)
सू : कहो भाइयो इन मुसलमानों ने तो अब बड़ा उपद्रव मचाया है।
1 ला. : तो महाराज! जब तक प्राण हैं तब तक लडे़ंगे।
2 रा : महाराज! जय पराजय तो परमेश्वर के हाथ है परंतु हम अपना धम्र्म तो प्राण रहे तक निवाहैं ही गे।
सू. : हाँ हाँ, इसमें क्या संदेह है। मेरा कहने का मतलब यह है कि सब लोग सावधान रहैं।
3 रा. : महाराज! सब सावधान हैं। धम्र्म युद्ध में तो हमको जीतने वाला कोई पृथ्वी पर नहीं है।
नी.दे. : पर सुना है कि ये दुष्ट अधम्र्म से बहुत लड़ते हैं।
सू. : प्यारी। वे अधम्र्म से लडें़ हम तो अधम्र्म नहीं न कर सकते। हम आर्यवंशी लोग धम्र्म छोड़ कर लड़ना क्या जानैं? यहां तो सामने लड़ना जानते हैं। जीते तो निज भूमि का उद्धार और मरे तो स्वर्ग। हमारे तो दोनों हाथ लड्डू हैं; और यश तो जीतै तो भी हमारा साथ है और मरैं तो भी।
4 था. : महाराज। इसमें क्या संदेह है, और हम लोगों को एकाएकी अधम्र्म से भी जीतना कुछ दाल भात का गस्सा नहीं है।
नी.दे. : तो भी इन दुष्टों से सदा सावधान ही रहना चाहिए। आप लोग सब तरह चतुर हो मैं इसमें विशेष क्या कहूँ स्नेह कुछ कहलाए बिना नहीं रहता।
सू. दे. : (आदर से) प्यारी। कुछ चिंता नहीं है अब तो जो कुछ होगा देखा ही जायगा न। (राजपूतों से)।
सावधान सब लोग रहहु सब भाँति सदाहीं।
जागत ही सब रहैं रैनहूँ सोअहिं नाहीं ।।
कसे रहैं कटि रात दिवस सब वीर हमारे।
असव पीठ सो होंहि चारजामें जिनि न्यारे ।।
तोड़ा सुलगत चढ़े रहैं घोड़ा बंदूकन।
रहै खुली ही म्यान प्रतंचे नहिं उतरें छन ।।
देखि लेहिंगे कैसे पामर जवन बहादुर।
आवहिं तो चड़ि सनमुख कायर कूर सबै जुर ।।
दैहैं रन को स्वाद तुरंतहि तिनहिं चखाई।
जो पै इक छन हू सनमुख ह्नै करिहिं लराई ।।
(जवनिका पतन)




चौथा दृश्य
सराय
(भठियारी, चपरगट्टू खाँ और पीकदान अली)
चप. : क्यों भाई अब आज तो जशन होगा न? आज तो वह हिंदू न लड़ेगा न।
पीक. : मैंने पक्की खबर सुनी है। आज ही तो पुलाव उड़ने का दिन है।
चप. : भई मैं तो इसी से तीन चार दिन दरबार में नहीं गया। सुना वे लोग लड़ने जायंगे। मैंने कहा जान थोड़ी ही भारी पड़ी है। यहाँ तो सदा भागतों के आगे मारतों के पीछे। जबान की तेग कहिए दस हजार हाथ झारूँ।
पीक. : भई इसी से तो कई दिन से मैं भी खेमों की तर्प$ नहीं गया। अभी एक हफ्ता हुआ मैं उस गाँव में एक खानगी है उसके यहाँ से चला आता था कि पाँच हिन्दुओं के सवारों ने मुझे पकड़ लिया और तुरक तुरक करके लगे चपतियाने। मैंने देखा कि अब तो बेतरह फँसे मगर वल्लाह मैंने भी अपने कौम और दीन की इतनी मजष्म्मत और हिन्दुओं की इतनी तारीफ की कि उन लोगों को छोड़ते ही बन आई। ले ऐसे मौके पर और क्या करता? मुसल्मानी के पीछे अपनी जान देता?
चप. : हाँ जी किसकी मुसल्मानी और किसका कुफ्र। यहाँ अपने मांडे़ हलुए से काम है।
भठि. : तो मियाँ आज जशन में जाना तो देखो मुझको भूल मत जाना। जो कुछ इनाम मिलै उसमं भी कुछ देना। हाँ! देखो मैंने कई दिन खिदमत की है।
पीक. : जरूर जरूर जान छल्ला। यह कौन बात है तुम्हारे ही वास्ते तो जी पर खेलकर यहाँ उतरें हैं। (चपरगट्टू से कान में) यह सुनिए जान झोवें$ हम माल चाभैं बी भटियारी। यह नहीं जानतीं कि यहाँ इनकी ऐसी ऐसी हजारों चरा कर छोड़ दी हैं।
चप. : (धीरे से) अजी कहने दो कहने से कुछ दिये ही थोड़े देते हैं। भटियारी हो चाहे रंडी, आज तो किसी को कुछ दिया नहीं है उलटा इन्हीं लोगों का खा गए हैं (भटियारी से) वाह जान तक हाजिर है। जब कहो गरदन काट कर सामने रख दूँ। (खूब घूरता है।)
भटि. : (आँखें नचाकर) तो मैं भी तो मियाँ की खिदमत से किसी तरह बाहर नहीं हौं।
दोनो गाते हैं,
पिकदानों चपरगट्टू है बस नाम हमारा।
इक मुुफ्त का खाना है सदा काम हमारा ।।
उमरा जो कहै रात तो हम चाँद दिखा दें।
रहता है सिफारिश से भरा जाम हमारा ।।
कपड़ा किसी का खाना कहीं सोना किसी का।
गैरों ही से है सारा सरंजाम हमारा ।।
हो रंज जहाँ पास न जाएँ कभी उसके।
आराम जहाँ हो है वहाँ काम हमारा ।।
जर दीन है कुरप्रान है ईमां है नबी है।
जर ही मेरा अल्लाह है जर राम हमारा ।।
भटि. : ले मैं तो मियाँ के वास्ते खाना बनाने जाती हूँ।
पिकदान : तो चलो भाई हम लोग भी तब तक जरा ‘रहे लाखों बरस साकी तेरा आबाद मैखाना’।
चपर. : चलो।
(जवनिका पतन)



पंचम दृश्य
(सूर्यदेव के डेरे का बाहरी प्रान्त)
(रात्रि का समय)
देवा सिंह सिपाही पहरा देता हुआ घूमता है।
नेपथ्य में गान
(राग कलिगड़ा)
सोंओ सुख निंदिया प्यारे ललन।
नैनन के तारे दुलारे मेरे बारे
सोओ सुख निंदिया प्यारे ललन।
भई आधी रात बन सनसनात,
पथ पंछी कोउ आवत न जात,
जग प्रकृति भई मनु थिर लखात
पातहु नहिं पावत तरुन हलन ।।
झलमलत दीप सिर धुनत आय,
मनु प्रिय पतंग हित करत हाय,
सतरात अंग आलस जनाय,
सनसन लगी सिरी पवन चलन।
सोए जग के सब नींद घोर,
जागत काम चिंतित चकोर,
बिरहिन बिरही पाहरू चोर,
इन कहं छन रैनहूं हाय कल न ।।
सिपाही : बरसों घर छूटे हुए। देखें कब इन दुष्टों का मुँह काला होता है। महाराज घर फिर कर चलैं तो देस फिर से बसै। रामू की माँ को देखे कितने दिन हुए। बच्चा की खबर तक नहीं मिली (चैंक कर ऊँचे स्वर से) कौन है? खबरदार जो किसी ने झूटमूठ भी इधर देखने का विचार किया। (साधारण स्वर से) हां-कोई यह न जानै कि देवासिंह इस समय जोरू लड़कों की याद करता है इससे भूला है। क्षत्री का लड़का है। घर की याद आवै तो और प्राण छोड़कर लडै़। (पुकारकर) खबरदार। जागते रहना।
(इधर उधर फिर कर एक जगह बैठकर गाता है)
(कलिगड़ा)
प्यारी बिन कटत न कारी रैन।
पल छिन न परत जिय हाय चैन ।।
तन पीर बढ़ी सब छुटयो धीर,
कहि आवत नहिं कछु मुखहु बैन।
जिय तड़फड़ात सब जरत गात,
टप टप टकत दुख भरे नैन ।।
परदेस परे तजि देस हाय,
दुख मेटन हारो कोउ है न।
सजि विरह सैन यह जगत जैन,
मारत मरोरि मोहि पापी मैन ।।
प्यारी बिन कटत न कारी रैन।
(नेपथ्य में कोलाहल)
कौन है। यह कैसा शब्द आता है। खबरदार।
(नेपथ्य में विशेष कोलाहल)
(घबड़ाकर) हैं यह क्या है? अरे क्यों एक साथ इतना कोलाहल हो रहा है। बीर सिंह! बीर सिंह! बीर सिंह जागो। गांविद सिंह दौड़ो!
नेपथ्य में बड़ा कोलाहल और मार मार का शब्द। शस्त्र खींचें हुए अनेक यवनों का प्रवेश। अल्ला अकबर का शब्द। देवासिंह का युद्ध और पतन। यवनों का डेरे में प्रवेश। पटाक्षेप।



छठवाँ दृश्य
अमीर का खेमा
(मसनद पर अमीर अबदुश्शरीफ खाँ सूर बैठा है। इधर उधर
मुसल्मान लोग हथियार बाँधे मोछ पर ताव देते बड़ी शान से बैठे हैं।)
अमीर : अलहम्दुलिल्लाह! इस कम्बख्त काफिर को तो किसी तरह गिरफ्तार किया। अब बाकी फौज भी फतह हो जायेगी।
1 सर्दार : ऐ हुजूर, जब राजा ही कैद हो गया तो फौज क्या चीज है। खुदा और रसूल के हुक्म से इसलाम की हर जगह फतह है। हिंदू हैं क्या चीज। एक तो खुदा की मार दूसरे बेवकूफ आनन फानन में सब जहन्नुमरसीद होंगे।
2 सर्दार : खुदाबंद! इसलाम के आफताब के आगे कुफ्र की तारीकी कभी ठहर सकती है? हुजूर अच्छी तरह से यकीन रक्खैं कि एक दिन ऐसा आवेगा जब तमाम दुनिया में ईमान का जिल्वा होगा। कुफ्फांर सब दाखिले दोजख होंगे और पयगँबरे आखिरूल् जमां सल्लरू-ल्लाह अल्लै हुम्सल्लम का दीन तमाम रूए जमीन पर फैल जायेगा।
अमीर : आमीं आमीं।
काजी : मगर मेरी राय है कि और गुफ्तगू के पेश्तर शुकरिया अदा किया जाय क्योंकि जिस हकतआला की मिहरबानी से यह फतह हासिल हुई है सबके पहिले उस खुदा का शुक्र अदा करना जुरूर है।
सब : बेशक, बेशक।
(व़$ाज़ी उठकर सब के आगे घुटने के बल झुकता है और फिर अमीर आदि भी उसके साथ झुकते हैं)
काजी : (हाथ उठाकर) काफिर पै मुसल्माँ को फतहयाब बनाया।
सब : (हाथ उठाकर) अलहमद् उलिल्ला ह।
काजी : की मेह बड़ी तूने य बस मेरे खुदाया।
सब : अलहम्द् उलिल्लाह्।
काजी : सदके में नवी सैयदे मक्की मदनी के, अतफाले अली के असहाब के, लश्कर मेरा दुश्मन से बचाया।
सब : अलहम्द् उलिल्लाह्।
काजी : खाली किया इक आन में दैरों को सनम से, शमशीर दिखा के, बुतखानः गिरा कर के हरम तूने बनाया।
सब : अलहम्द् उल्लिल्लाह।
काजी : इस हिंद से सब दूर हुई कुफ्र की जुल्मत, की तूने वह रहमत, नक्कारए ईमां को हरेक सिम्त बजाया।
सब : अलहम्द् उल्लिल्लाह।
काजी : गिरकर न उठे काफिरे बदकार जमीं से, ऐसे हुए गारत। आमीं कहो।
सब : आमीं।
काजी : मेरे महबूब खुदाया।
सब : अलहम्द् उल्लिल्लाह।
(जवनिका गिरती है)



सातवाँ दृश्य
कैदखाना। महाराज सूर्यदेव एक लोहे के पिंजड़े में मूर्छित पड़े हैं।
एक देवता सामने खड़ा होकर गाता है।
देवता कृ
लावनी,
सब भांति दैव प्रतिकूल होइ एहि नासा।
अब तजहु बीर बर भारत की सब आसा ।।
अब सुख सूरज को उदय नहीं इत ह्नैहै।
सो दिन फिर इत सपनेहूं नहिं ऐहै ।।
स्वाधीनपनो बल धीरज सबहि नसैहै।
मंगलमय भारत भुव मसान ह्नै जैहै ।।
दुख ही दुख करिहै चारहु ओर प्रकासा।
अब तजहु बीर बर भारत की सब आसा ।।
इस कलह विरोध सबन के हिय घर करिहै।
मूरखता को तम चारहु ओर पसरिहै ।।
वीरता एकता ममता दूर सिधरि है।
तजि उद्यम सब ही दास वृत्ति अनुसरि है ।।
ह्नै जैहै चारहु बरन शूद्र वनि दासा।
अब तजहु बीर बर भारत की सब आसा ।।
ह्नैहैं सब इनके भूत पिशाच उपासी।
कोऊ बनि जैहैं आपुहि स्वयं प्रकासी ।।
नसि जैहैं सगरे सत्य धर्म अविनासी।
निज हरि सों ह्नै हैं बिमुख भरत भुवबासी ।।
तजि सुपथ सबहि जन करिहैं कुपथ बिलासा।
अब तजहुं बीर बर भारत की सब आसा ।।
अपनी वस्तुन कहँ लखिहैं सबहि पराई।
निज चाल छोड़ि गहिहैं औरन की धाई ।।
तुरकन हित करिहैं हिंदू संग लराई।
यवनन के चरनहिं रहिहैं सीस चढ़ाई ।।
तजि निज कुल करिहैं नीचन संग निवासा।
अब तजहु बीर बर भारत की सब आसा ।।
रहे हमहुँ कबहुँ स्वाधीन आर्य बल धारी।
यह दैहैं जिय सों सबही बात बिसारी ।।
हरि विमुख धरम बिनु धन, बलहीन दुखारी।
आलसी मंद तन छीन छुछित संसारी ।।
सुख सों सहिहैं सिर यवन पादुका त्रसा।
अब तजहु बीर बर भारत की सब आसा ।।
(जाता है)
सू. दे. : (सिर उठा कर) यह कौन था? इस मरते हुए शरीर पर इस ने अमृत और विष दोनों एक साथ क्यों बरसाया? अरे अभी तो यहां खड़ा गा रहा था अभी कहाँ चला गया? निस्संदेह यह कोई देवता था। नहीं तो इस कठिन पहरे में कौन आ सकता है। ऐसा सुंदर रूप और ऐसा मधुर सुर और किसका हो सकता है। क्या कहता था? ‘अब तजहु वीर वर भारत की सब आसा’ ऐं! यह देववाक्य क्या सचमुच सिद्ध होगा? क्या अब भारत का स्वाधीनता सूर्य फिर न उदय होगा? क्या हम क्षत्रिय राजकुमारों को भी अब दासवृत्ति करनी पडै़गी? हाय! क्या मरते मरते भी हमको यह वज्र शब्द सुनना पड़ा? और क्या कहा ‘सुख सौं सहिहैं सिर यवन पादुका त्रासा।’ हाय! क्या अब यहाँ यही दिन आवैगे? क्या भारत जननी अब एक भी वीर पुत्र न प्रसव करैगी? क्या दैव को अब इस उत्तम भूमि की यही नीच गति करनी है? हा! मैं यह सुनकर क्यों नहीं मरा कि आर्यकुल की जय हुई और यवन सब भारतवर्ष से निकाल दिए गए। हाय!
(हाय करता और रोता हुआ मुर्छित हो जाता है)
(जवनिका पतन)




आठवाँ दृश्य
मैदान-वृक्ष
(एक पागल आता है)
पागल : मार मार मार-काट काट काट-ले ले ले-ईबी-सीबी-बीबी-तुरक तुरक तुरक-अरे आया आया आया-भागो भागो भागो। (दौड़ता है) मार मार मार-और मार दे मार-जाय न जाय न-दुष्ट चांडाल गोभक्षी जवन-अरे हाँ रे जवन-लाल डाढ़ी का जवन-बिना चोटी का जवन-हमारा सत्यानाश कर डाला। हमारा हमारा हमारा। इसी ने इसी ने-लेना जाने न पावै। दुष्ट म्लेच्छ हूँ। हमको राजा बनावैगा। छत्र चँबर मुरछल सिंहासन सब-पर जवन का दिया-मार मार मार-शस्त्र न हो तो मंत्र से मार। मार मार मार। फट चट पट-जवन पट-षट-छट पट-आँ ईं ऊँ आकास बाँध पाताल-चोटी कटा निकाल। फः-हां हीं हौं-जवन जवन मारय मारय उच्चाटय उच्चाट्य........बेधय बेधय......नाशय........नाशय फाँसय फाँसय-त्रासय त्रसय........स्वाहा फू: सब जवन स्वाहा फू: अब भी नहीं गया? मार मार। हमारा देश-हम राजा हम रानी। हम मंत्री। हम प्रजा। और कौन? मार मार मार। तलवार तलवार। टूट गई टूटी। टूटी से मार। ढेले से मार। हाथ से मार। मुक्का जूता लात लाठी सोंटा ईंटा पत्थर-पानी सबसे मार हम राजा हमारा देश हमारा भेस हमारा पेड़ पत्ता कपड़ा लत्ता छाता जूता सब हमारा। ले चला ले चला। मार मार मार-जाय न जाय न-सूरज में जाय चंद्रमा में जाय जहां जाय तारा में जाय उतारा में जाय पारा में जाय जहाँ जाय वहीं पकड़-मार मार मार। मीयाँ मीयाँ मीयाँ चीयाँ चीयाँ चीयाँ। अल्ला अल्ला अल्ला हल्ला हल्ला हल्ला। मार मार मार। लोहे के नाती की दुम से मार पहाड़ की स्त्री के दिये से मार-मार मार-अंड का बंड का संड का खंड़-धूप छाँह चना मोती अगहन पूरा माघ कपड़ा लत्ता डोम चमार मार मार। ईंट की आँख में हाथी का बान-बंदर की थैली में चूने की कमान-मार मार मार-एक एक एक मिल मिल मिल-छिप छिप छिप-खुल खुल खुल-मार मार मार-
(एक मियाँ को आता देखकर)
मार मार मार-मुसल मुसल मुसल-मान मान मान-सलाम सलाम सलाम कि मार मार मार-नबी नबी नबी-सबी सबी-ऊँट के अंडे की चरबी का खर। कागज के धप्पे कर सप्पे की सर-मार मार मार।
(मियाँ के पास जाकर)
तुरुक तुरुक तुरुक-घुरुक घुरुक घुरुक-मुरुक मुरुक मुरुक-फुरुक फुरुक फुरुक-याम शाम लीम लाम ढाम-
(मियाँ को पकड़ने को दौड़ता है)
मियाँ : (आप ही आप) यह तो बड़ी हत्या लगी। इससे कैसे पिंड छूटेगा-(प्रकट) दूर दूर।
पागल : दूर दूर दूर-चूर चूर चूर-मियाँ की डाढ़ी में दोजख की हूर-दन तड़ाक छू मियाँ की माईं में मोयीं की मूँ-मार मार मार-मियाँ छार खा़र।
(मियाँ के पास जाकर अट्टहास करके)
रावण का साला दुर्योंधन का भाई अमरूत के पेड़ को पसेरी बनाता है-अच्छा अच्छा-नहीं नहीं तैने तो हमको उस दिन मारा था न! हाँ हाँ यही-जाने न पावे। मार मार- (मियाँ की गरदन पकड़कर पटक देता है और छाती पर चढ़कर बैठता है)
रावण का साला दिल्ली का नवाब वेद की किताब-बोल हम राजा कि तू राजा-(मियाँ की डाढ़ी पकड़कर खींचने से कृत्रिम डाढ़ी निकल आती है। विष्णु शर्मा को पहिचान कर अलग हो जाता है) रावण का साला मियाँ का भेस विष्णु के कान में शर्मा का केस। मेरी शक्ति गुरु की भक्ति फुरो मंत्रा ईश्वरोवाच डाढ़ी जगाके तो मियाँ साँच।
(आँख से इंगित करता है)
मियाँ : (फिर डाढ़ी लगाकर) लाहौलवलाकूअत क्या बेखबर पागल है। इसके घर के लोग इसके लौटने के मुनतजीर हैं यह यहीं पड़ा है।
पागल : पड़ा घड़ा सड़ा-घूम घाम जड़ा-एक एक बात-जात सात धात-नास नास नास-घास छास फास।
मियाँ : क्या सचमुच-दरहकीकत-यह बड़ा भारी पागल है।
पागल : सचमुच नास-राजा अकास-ढाल बे ढाल मियाँ मतवाल (आँख से दूर जाने को। इंगित करता है। मियाँ आगे बढ़ते हैं-यह पीछे धूल फेंकता दौड़ता है)
मार मार मार। बरसा की धार। लेना जाने न पावे। मियाँ का खच्चर (दोनों एकांत में जाकर खड़े होते हैं)
मियाँ : (चारों ओर देखकर) अरे वसंत! क्या सचमुच सर्वनाश हो गया?
पागल : पंडित जी! कल सबेरी रात ही महाराज ने प्राण त्याग किए (रोता है)
मियाँ : हाय! महाराज हम लोगों को आप किसके भरोसे छोड़ गए! अब हमको इन नीचों का दासत्व भोगना पडै़गा! हाय हाय! (चारों ओर देखकर) हाँ, समाचार तो कहो क्या हुआ।
पागल : कल उन दुष्ट यवनों ने महाराज से कहा कि तुम जो मुसलमान हो जाओ तो हम तुमको अब भी छोड़ दें। इस समय वह दुष्ट अमीर भी वहीं खड़ा था। महाराज ने लोहे के पिंजडे़ में से उसके मुँह पर थूक दिया, और क्रोध कर के कहा कि दुष्ट! हमको पिंजड़े में बंद और परवश जानकर ऐसी बात कहता है। क्षत्राी कहीं प्राण के भय से दीनता स्वीकार करते हैं। तुझ पर थू और तेरे मत पर थू।
मियाँ : (घबड़ाकर) तब तब।
पागल : इस पर सब यवन बहुत बिगड़े। चारों ओर से पिंजड़े के भीतर शस्त्रा फेंकने लगे। महाराज ने कहा इस बंधन में मरना अच्छा नहीं। बड़े बल से लोहे के पिंजड़े का डंडा खींचकर उखाड़ लिया और पिंजड़े के बाहर निकल उसी लोहे के डंडे से सत्ताईस यवनों को मारकर उन दुष्टों के हाथ से प्राण त्याग किए। हाय! (रोता है)
मियाँ : (चारों ओर देखकर) और अब क्या होता है? महाराज का शरीर कहाँ है? तुमने यह सब कैसे जाना?
पागल : सब इन्हीं दुष्टों के मुख से सुना। इसी भेष में घूमते हैं। महाराज का शरीर अभी पिंजड़े में रक्खा है। कल जशन होगा। कल सब शराब पीकर मस्त होंगे। (चारों ओर देखकर) कल ही अवसर है।
मियाँ : तो कुमार सोमदेव और महारानी से हम जाकर यह वृत्त कह देते हैं, तुम इन्हीं लोगों में रहना।
पागल : हाँ हम तो यहीं हुई हैं। (रोकर) हम अब स्वामी के बिना वह जाही कर क्या करैंगे।
मियाँ : हाय! अब भारतवर्ष की कौन गति होगी? अब त्रौलोक्य ललाम सुता भारत कमलिनी को यह दुष्टयवन यथासुख दलन करैंगे। अब स्वाधीनता का सूर्य हम लोगों में फिर न प्रकाश करैगा। हाय! परमेश्वर तू कहाँ सो रहा है। हाय! धार्मिक वीर पुरुष की यह गति!
(उदास स्वर से गाता है)
(विहाग)
कहाँ करूनानिधि केसव सोए!
जागत नेकु न यदपि बहुत बिधि भारत बासी रोए ।।
इक दिन वह हो जब तुम छिन नहिं भारत हित बिसराए।
इतके पसु गज कों आरत लखि आतुर प्यादे धाए ।।
इक इक दीन हीन नर के हित तुम दुख सुनि अकुलाई।
अपनी संपति जानि इनहि तुम रहîौ तुरंतहिं धाई ।।
प्रलय काल सम जौन सुदरसन असुर प्राण संहारी।
ताकी धार भई अब कुंठित हमरी बेर मुरारी ।।
दुष्ट जवन बरबर तुव संतति घास साग सम काटैं।
एक-एक दिन सहस सहस नर सीस काटि भुव पाटैं ।।
ह्नै अनाथ आरत कुल विधवा बिलपहिं दीन दुखारी।
बल करि दासी तिनहिं बनावहिं तुम नहिं लजत खरारी ।।
कहाँ गए सब शास्त्रा कही जिन भारी महिमा गाई।
भक्तवछल करुनानिधि तुम कहँ गयो बहुत बनाई ।।
हाय सुनत नहिं निठुर भए क्यों परम दयाल कहाई।
सब बिधि बूड़त लखि निज देसहि लेहु न अवहुँ बचाई ।।
(दोनों रोते हैं)
(जवनिका पतन)


नवाँ दृश्य
राजा सूर्यदेव के डेरे
(एक भीतरी डेरे में रानी नीलदेवी बैठी हैं
और बाहरी डेरे में क्षत्री लोग पहरा देते हैं)
नी. दे. : (गाती और रोती)
तजी मोहि काके ऊपर नाथ।
मोहि अकेली छोड़ि गए तजि बालपने को साथ ।।
याद करहु जो अगिनि साखि दै पकरयौ मेरो हाथ।
सो सब मोह आज तजि दीनो कीनो हाय अनाथ ।। 1 ।।
प्यारे क्यों सुधि हाय बिसारी?
दीन भई बिड़री हम डोलत हा हा होय तुमारी ।।
कबहुँ कियो आदर जा तन को तुम निज हाथ पियारे।
ताही की अब दीन दशा यह कैसे लखत दुलारे ।।
आदर के धन सम जा तन कहँ निज अंकन तुम धारîौ।
ताही कहैं अब परयौ धूर में कैसे नाथ निहारîौ ।। 2 ।।
प्यारे कितै गई सो प्रीति?
निठुर होइ तजि मोहि सिधारे नेह निवाहन रीति ।।
कह्यो रह्यो जो छिन नहिं तजिहैं मानहु वचन प्रतीति।
सो मोहि जीवन लौं दुख दीनो करी हाय विपरीति ।। 3 ।।
कुमार सोमदेव चार राजपूतों के साथ बाहरी डेरे में आते हैं,
सोम : भाइयो, महाराज का समाचार तो आप लोगों ने सुना। अब कहिए क्या कत्र्तव्य है? मेरी तो शोक से मति विकल हो रही है। आप लोगों की जो अनुमति हो किया जाय।
1 रा पू : कुमार आप ऐसी बात कहैंगे कि शोक से मति विकल हो रही है तो भारतवर्ष किस का मुँह देखैगा। इस शोक का उत्तर हम लोग अश्रुधारा से न देकर कृपाण धारा से देंगे।
2 रा पू : बहुत अच्छा !!! उन्मत्त सिंह, तुमने बहुत अच्छा कहा। इन दुष्ट चांडाल यवनों के रुधिर से हम जब तक अपने पितरों का तर्पण न कर लेंगे हम कुमार की शपथ करके प्रतिज्ञा कर के कहते हैं कि हम पितृऋण से कभी उऋण न होंगे।
3 रा पू : शाबाश! विजयसिंह ऐसा ही होगा। चाहे हमारा सर्वस्व नाश हो जाय परंतु आकल्पांत लोह लेखनी से हमारी यह प्रतिज्ञा दुष्ट यवनों के हृदय पर लिखी रहैगी। धिक्कार है उस क्षत्रियाधर्म को जो इन चांडालों के मूल नाश में न प्रवृत्त हो।
4 रा पू : शत बार धिक्कार है। सहस्र बार धिक्कार है उसको जो मनसा वाचा कर्मणा किसी तरह इन कापुरुषों से डरै। लक्ष वार कोटि बार कोटि बार धिक्कार है उसको जो इन चांडालों के दमन करने में तृण मात्रा भी त्राुटि करै। (बायाँ पैर आगे बढ़ा कर) म्लेच्छ कुल के और उसके पक्षपातियों के सिर पर यह मेरा बायाँ पैर है जो शरीर के हजार टुकड़े होने तक ध्रुव की भांति निश्चल है। जिस पामर को कुछ भी सामथ्र्य हो हटावै।
सो. दे. : धन्य आर्यवीर पुरूषगण! तुम्हारे सिवा और कौन ऐसी बात कहैगा। तुम्हारी ही भुजा के भरोसे हम लोग राज्य करते हैं। यह तो केवल तुम लोगों का जी देखने को मैंने कहा था। पिता की वीरगति का शोच किस क्षत्रिय को होगा? हाँ जो हम लोग इन दुष्ट यवनों का दमन न करके दासत्व स्वीकार करैं तो निसंदेह दुःख हो। (तलवार खींच कर) भाइयो, चलो इसी क्षण हम लोग उस पामर नीच यवन के रक्त से अपने आर्य पितरों को तृप्त करें।
चलहु बीर उठि तुरत सवै जय ध्वजहि उड़ाओ।
लेहु म्यान सो खग खींचि रनरंग जमाओ ।।
परिकर कसि कटि उठो धनुष पै धरि सर साधौ।
केसरिया बानो सजि सजि रनकंकन बाँधौ ।।
जौ आरज गन एक होइ निज रूप सम्हारैं।
तजि गृह कलहहि अपनी कुल मरजाद विचारैं ।।
तौ ये कितने नीच कहा इनको बल भारी।
सिंह जगे कहुँ स्वान ठहरिहैं समर मँझारी ।।
पदतल इन कहँ दलहु कीट त्रिन सरिस जवनचय।
तनिकहु संक न करहु धर्म जित जय तित निश्चय ।।
आर्य वंश को बधन पुन्य जा अधंम धर्म मै।
गोभक्षन द्विज श्रुति हिंसन नित जास कर्म मैं ।।
तिनको तुरितहिं हतौ मिलैं रन कै घर माहीं।
इन दुष्टन सों पाप किएहुँ पुन्य सदाहीं ।।
चिऊँटिहु पदतल दबे डसत ह्नै तुच्छ जंतु इक।
ये प्रत्तच्छ अरि इनहिं उपेछै जौन ताहि धिक ।।
धिक तिन कहँ जे आर्य होइ जवनन को चाहैं।
धिक तिन कहँ जे इनसों कछु संबंध निबाहैं ।।
उठहु बीर तरवार खींचि मारहु घन संगर।
लोह लेखनी लिखहु आर्य बल जवन हृदय पर ।।
मारू बाजे बजैं कहौ धौंसा घहराहीं।
उड़हिं पताका सत्राु हृदय लखि लखि थहराहीं ।।
चारन बोलहिं आर्य सुजस बंदी गुन गावैं।
छुटहिं तोप घनबोर सबै बंदूक चलावैं ।।
चमकहिं असि भाले दमकहिं ठनकहिं तन बखतर।
हींसहिं हय झनकहिं रथ गज चिक्करहिं समर थर ।।
छन महँ नासाहिं आर्य नीच जवनन कहँ करि छय।
कहहु सबै भारत जय भारत जय भारत जय ।।
सब वीर : भारतवर्ष की जय-प्रार्यकुल की जय-महाराज सूर्यदेव की जय- महारानी नीलदेवी की जय-कुमार सोमदेव की जय-क्षत्रिय वंश की जय।
(आगे आगे कुमार उसके पीछे तलवार खींचकर क्षत्रिय चलते हैं। रानी नीलदेवी बाहर के घर में आती हैं)
नील : पुत्र की जय हो। क्षत्रिय कुल की जय हो। बेटा एक बात हमारी सुन लो तब युद्ध यात्रा करो।
सोम : (रानी को प्रणाम करके) माता! जो आज्ञा हो।
नी. दे. : कुमार तुम अच्छी तरह जानते हो कि यवन सेना कितनी असंख्य है और यह भी भली भाँति जानते हो कि जिस दिन महाराज पकड़े गए उसी दिन बहुत से राजपूत निराश होकर अपने अपने घर चले गए। इससे मेरी बुद्धि में यह बात आती है कि इनसे एक ही बेर संमुख युद्ध न करके कौशल से लड़ाई करना अच्छी बात है।
सो. दे. : (कुछ क्रोध कर के) तो क्या हम लोगों में इतनी सामथ्र्य नहीं कि यवनों को युद्ध में लड़कर जीतैं?
सब क्षत्राी : क्यों नहीं?
नी. दे. : (शांत भाव से) कुमार तुम्हारी सर्वदा जय है। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारा कहीं पराजय नहीं है। किंतु माँ की आज्ञा मानना भी तो तुमको योग्य है।
सब क्षत्राी : अवश्य अवश्य।
सोम : (हाथ जोड़कर) माँ, जो आज्ञा होगी वही करूँगा!
नी. दे. : अच्छा सुनो। (पास बुलाकर कान में सब विचार कहती हैं)
सोम : जो आज्ञा।
(एक ओर से कुमार और दूसरी ओर से रानी जाती हैं)
(पटाक्षेप)



दसवाँ दृश्य
स्थान-अमीर की मजलिस
(अमीर गद्दी पर बैठा है। दो चार सेवक खड़े हैं।
दो चार मुसाहिब बैठे हैं। सामने शराब के पियाले,
सुराही, पानदान, इतरदान रक्खा है।
दो गवैये सामने गा रहे हैं। अमीर नशे में झूमता है)
गवैये : आज यह फत्ह की दरबार मुबारक होए।
मुल्क यह तुझको शहरयार मुबारक होए ।।
शुक्र सद शुक्र की पकड़ा गया वह दुश्मने दीन।
फत्ह अब हमको हरेक बार मुबारक होए ।।
हमको दिन रात मुबारक हो फतह ऐणे उरूज।
काफिरों को सदा फिटकार मुबारक होए ।।
फत्हे पंजाब से सब हिंद की उम्मीद हुई।
मोमिनो नेक य आसार मुबारक होए ।।
हिंदू गुमराह हों बेजर हों बनें अपने गुलाम।
हमको ऐशो तरबोतार मुबारक होए ।।
अमीर : आमीं आमीं। वाह वाह वल्लाही खूब गाया। कोई है? इन लोगों को एक एक जोड़ा दुशाला इनआम दो। (मद्यपान)
(एक नौकर आता है)
नौ : खुदावंद निआमत! एक परदेस की गानेवाली बहुत ही अच्छी खे़मे के दरवाजे पर हाजिर है। वह चाहती है कि हुजूर को कुछ अपना करतब दिखलाए। जो इरशाद हो बजा लाऊँ।
अमीर : जरूर लाओ। कहो साज मिला कर जल्द हाजिर हो।
नौ : जो इरशाद। (जाता है)
अमीर : आज के जशन का हाल सुनकर दूर दूर से नाचने गानेवाले चले आते हैं।
मुसाहिब : बजा इरशाद है, और उनको इनाम भी बहुत ज्यादा: मिलता है न क्यों आवैं?
(चार समाजियों के साथ एक गायिका का प्रवेश)
अमीर : आप ही आप, यह तायफा तो बहुत ही खूबसूरत है! ख्प्रगट, तुम्हारा क्या नाम है? (मद्यपान)
गायिका : मेरा नाम चंडिका है। मैं बड़ी दूर से आपका नाम सुनकर आती हूँ।
अमीर : बहुत अच्छी बात है। जल्द गाना शुरू करो। तुम्हारा गाना सुनने को मेरा इश्तियाक हर लहजे बढ़ता जाता है। जैसी तुम खूबसूरत हो वैसा ही तुम्हारा गाना भी खूबसूरत होगा। (मद्यपान)
गायिका : जो हुकुम। (गाती है)
ठुमरी तिताला
हाँ मोसे सेजिया चढ़लि नहिं जाई हो।
पिय बिनु साँपिन सी डसै बिरह रैन ।।
छिन छिन बढ़त बिथा तन सजनी,
कटत न कठिन वियोग की रजनी ।।
बिनु हरि अति अकुलाई हो।
अमीर : वाह वाह क्या कहना है! (मद्यपान) क्यों फिदाहुसैन! कितना अच्छा गाया है।
मुसाहिब : सुबहानअल्लाह! हुजूर क्या कहना है। वल्लाह मेरा तो क्या जिक है मेरे बुजुर्गों ने ख्वाब में भी ऐसा गाना नहीं सुना था।
(अमीर अंगूठी उतारकर देना चाहता है)
गायिका : मुझको अभी आपसे बहुत कुछ लेना है। अभी आप इसको अपने पास रखें आखीर में एक साथ मैं सब ले लूँगी।
अमीर : (मद्यपान करके) अच्छा! कुछ परवाह नहीं। हाँ, इसी धुन की एक और हो मगर उसमें फुरकत का मजमून न हो क्योंकि आज खुशी का दिन है।
गायिका : जो हुकुम (उसी चाल में गाती है)
जाओ जाओ काहे आओ प्यारे कतराए हो।
काहे चलो छाँह से छाँह मिलाए हो ।।
जिय को मरम तुम साफ कहत किन काहे फिरत मँडराए हो।
एहो हरि देखि यह नयो मेरो जीवन हम जानी तुम जो लुभाए हो ।।
अमीर : (मद्यपान कर के अत्यंत रीझने का नाट्य करता है) कसम खुदा की ऐसा गाना मैंने आज तक नहीं सुना था। दरहकीकत हिंदोस्तान इल्म का खजाना है। वल्लाह मैं बहुत ही खुश हुआ।
मुसाहिब गण: वल्लाह, (बजा इरशाद बेशक इत्यादि सिर और दाढ़ी हिलाकर कहते हैं)
अमीर : तुम शराब नहीं पीतीं?
गायिका : नहीं हुजूर।
अमीर : तो आज हमारी खातिर से पीओ।
गायिका : अब तो आपके यहाँ आई ही हूँ। ऐसी जल्दी क्या है। जो जो हुजूर कहैंगे सब करूँगी।
अमीर : अच्छा कुछ परवाह नहीं। (मद्यपान) थोड़ा सा और आगे बढ़ आओ।
(गायिका आगे बढ़ कर बैठती है)
अमीर : (खूब घूरकर स्वागत) हाय हाय! इसको देखकर मेरा दिल बिलकुल हाथ से जाता रहा। जिस तरह हो आज ही इसको काबू में लाना जरूर है। (प्रगट) वल्लाह, तुम्हारे गाने ने मुझको बेअख़्तियार कर दिया है। एक चीज़ और गाओ इसी धुन की। (मद्यपान)
गायिका : जो हुकुम। (गाती है)
हाँ गरवा लगावै गिरिधारी हो, देखो सखी लाज सरम जग की,
छोड़ि चट निपट निलज मुख चूमै बारी बारी।
अति मदमाती हरि कछु न गिनत छैल बरजि रही मैं होई होई बलिहारी।
अब कहाँ जाऊँ कहा करूँ लाज की मैं मारी।
अमीर : (मद्यपान करके उन्मत्त की भाँति) वाह! क्या कहना है। (गिलास हाथ में उठाकर) एक गिलास तो अब तुझको जरूर ही पीना होगा। लो तुमको मेरी कसम, वल्लाह मेरे सिर की कसम जो न पी जाओ।
गायिका : हुजूर मैंने आज तक शराब नहीं पी है। मैं जो पीऊँगी तो बिल्कुल बेहोश हो जाऊँगी।
अमीर : कुछ परवाह नहीं, पीओ।
गायिका : हाथ जोड़कर, हुजूर, एक दिन के वास्ते शराब पीकर मैं क्यों अपना ईमान छोडूँ?
अमीर : नहीं नहीं, तुम आज से हमारी नौकर हुई, जो तुम चाहोगी तुमको मिलैगा। अच्छा हमारे पास आओ हम तुमको अपने हाथ से शराब पिलावैंगे।
(गायिका अमीर के अति निकट बैठती है)
अमीर : लो जान साहब!
(पियाला उठाकर अमीर जिस समय गायिका के पास ले जाता है उस समय गायिका बनी हुई नीलदेवी चोली से कटार निकालकर अमीर को मारती है और चारों समाजी बाजा फेंककर शस्त्रा निकालकर मुसाहिब आदि को मारते हैं)।
नी. दे. : ले चांडाल पापी! मुझको जान साहब कहने का फल ले, महाराज के बध का बदला ले। मेरी यही इच्छा थी कि मैं इस चांडाल का अपने हाथ से बध करूँ। इसी हेतु मैंने कुमार को लड़ने से रोका सो इच्छा पूर्ण हुई। (और आघात) अब मैं सुखपूर्वक सती हूँगी
अमीर : (मृतावस्था में) दगा-अल्लाह चंडिका-
(रानी नीलदेवी ताली बजाती है (तंबू फाड़कर शस्त्रा खींचे हुए, कुमार सोमदेव राजपूतों के साथ आते हैं। मुसलमानों को मारते और बाँधते हैं। क्षत्राी लोग भारतवर्ष की जय, आर्यकुल की जय, क्षत्रियवंश की जय, महाराज सूर्यदेव की जय, महारानी नीलदेवी की जय, कुमार सोमदेव की जय इत्यादि शब्द करते हैं)।


(पटाक्षेप)








प्रेमजोगिनी
नाटिका
भारतेंदु हरिश्चंद्र
1932



काशी के छायाचित्र या दो भले बुरे फोटोग्राफ नाम से प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था। हरश्चिंद्र चंद्रिका में इसका प्रकाशन 1874 ई. से आरम्भ हुआ था। प्रस्तुत पाठ ‘चंद्रिका’ के अनुसार है।

बैठ कर सैर मुल्क की करना
यह तमाशा किताब में देखा ।।

प्रेमजोगिनीं ।। नाटिका ।।
श्रीहरिश्चन्द्रलिखिता


नान्दी मगलपाठ करता है-
भरित नेह नवनीर नित बरसत सुरस अथोर।
जयति अपूरब धन कोऊ लखि नाचत मन मोर ।।
और भी-
जिन तृन सम किय जानि जिय कठिन जगत जंजाल।
जयतु सदा सो ग्रंथ कवि प्रेमजोगिनी बाल ।।
(मलिन मुख किए सूत्राधार और पारिपाश्र्वक आते हैं)
सू : (नेत्रा से आँसू पोंछ और ठंडी साँस भरकर) हा! कैसे ईश्वर पर विश्वास आवै।
पा : मित्र आज तुह्मैं1 क्या हो गया है और क्या बकते हो और इतने उदास क्यों हो।
(नेत्रा से जल की धारा बहती है और रोकने से भी नहीं रुकती)
पा : (अपने गले में सूत्राधार को लगाकर और आँसू पोंछकर) मित्र आज तुह्मै1 हो क्या गया है? यह क्या सूझी है? क्या आज लोगों को यही तमाशा दिखाओगे।
सू : हो क्या गया है क्या मैं झूठ कहता हूँ-इस्से बढ़कर और दुःख का विषय क्या होगा कि मेरा आज इस जगत् के कत्र्ता और प्रभु पर से विश्वास उठा जाता है और सच है क्यों न उठे यदि कोई हो तब न उठे हा! क्या ईश्वर है तो उसके यही काम हैं जो संसार में हो रहे हैं? क्या उसकी इच्छा के बिना भी कुछ होता है? क्या लोग दीनबन्धु दयासिन्धु उसको नहीं कहते? क्या माता पिता के सामने पुत्र की स्त्री के सामने पति की और बन्धुओं के सामने बन्धुओं की मृत्यु उसकी इच्छा बिना ही होती है। क्या सज्जन लोग विद्यादि सुगुण से अलंकृत होकर भी उसके इच्छा बिना ही दुखी होते हैं और दुष्ट मूर्खों के अपमान सहते हैं, केवल प्राण मात्रा नहीं त्याग करते पर उनकी सब गति हो जाती है, क्या इस कमलवनरूप भारत भूमि को दुष्ट गजों ने उसकी इच्छा बिना ही छिन्न भिन्न कर दिया? क्या जब नादिर चंगेज खाँ जैसे ऐसे निर्दयों ने लाखों निर्दोषी जीव मार डाले तब वह सोता था? क्या अब भारतखंड के लोग ऐसे कापुरुष और दीन उसकी इच्छा के बिना ही हो गए? हा! (आँसू बहते हैं लोग कहते हैं कि ये यह उसके खेल हैं। छिः ऐसे निर्दय को भी लोग दयासमुद्र किस मुँह से पुकारते हैं?)
पा : इतना क्रोध एक साथ मत करो। यह संसार तो दुःख रूप आप ही है इसमें सुख का तो केवल आभास मात्रा है।
सू : आभासमात्रा है तो-फिर किसने यह बखेड़ा बनाने कहा था और पचड़ा फैलाने कहा था, उस पर भी न्याव करने और कृपालु बनने का दावा (आँख भर आती है)।
पा : आज क्या है? किस बात पर इतना क्रोध किया है भला यहाँ ईश्वर का निर्णय करने आए हौ कि नाटक खेलने आए हौ?
सू : क्या नाटक खेलैं क्या न खेलैं ले इसी खेल ही में देखो। क्या सारे संसार के लोग सुखी रहें और हम लोगों का परम बन्धु पिता मित्र पुत्र सब भावनाओं से भावित, प्रेम की एकमात्रा मूर्ति, सत्य का एक मात्रा आश्रय, सौजन्य का एकमात्रा पात्रा, भारत का एकमात्रा हित, हिन्दी का एकमात्रा जनक, भाषा नाटकों का एकमात्रा जीवनदाता, हरिश्चन्द्र ही दुखी हो (नेत्रा में जल भर कर) हा सज्जनशिरोमणे! कुछ चिन्ता नहीं तेरा तो बाना है कि कितना ही भी ‘दुख हो उसे सुख ही मानना’ लोभ के परित्याग के समय नाम और कीत्र्ति तक का परित्याग कर दिया है और जगत से विपरीत गति चलके तूने प्रेम की टकसाल खड़ी की है। क्या हुआ जो निर्दय ईश्वर तुझे प्रत्यक्ष आकर अपने अंक में रख कर आदर नहीं देता और खल लोग तेरी नित्य एक नई निन्दा करते हैं और तू संसारी वैभव से सूचित नहीं है। तुझे इनसे क्या, प्रेमी लोग जो-तैरे और तू जिन्हें सरबस है वे जब जहाँ उत्पन्न होंगे तेरे नाम को आदर से लेंगे और तेरी रहन सहन को अपनी जीवन पद्धति समझेंगे (नेत्रों से आँसू गिरते हैं) मित्र! तुम तो दूसरों का अपकार, और अपना उपकार दोनों भूल जाते हौ तुम्हैं इनकी निन्दा से क्या इतना चित्त क्यों क्षुब्ध करते हौ स्मरण रक्खो ये कीड़े ऐसे ही रहैंगे और तुम लोक बहिष्कृत होकर भी इनके सिर पर पैर रख के बिहार करोगे, क्या तुम अपना वह कवित्त भूल गए-”कहैंगे सबैं ही नैन नीर भरिभरि पाछे प्यारे हरिचंद की कहानी रहि जायगी“ मित्र मैं जानता हूँ कि तुम पर सब आरोप व्यर्थ है; हा! बड़ा विपरीत समय है (नेत्रा से आँसू बहते हैं)।
पा : मित्र, जो तुम कहते हौ सो सब सत्य है पर काल भी तो बड़ा प्रबल है। कालानुसार कम्र्म किए बिना भी तो काम नहीं चलता।
सू : हाँ न चलै तो हम लोग काल के अनुसार चलैंगे,-कुछ वह लोकोत्तर चरित्रा थोड़े ही काल के अनुसार चलैगा।
पा : पर उसका परिणाम क्या होगा?
सू : क्या कोई परिणाम होना अभी बाकी है? हो चुका जो होना था।
पा : तो फिर आज जो ये लोग आए हैं सो यही सुनने आए हैं?
सू : तो ये सब सभासद तो उसके मित्र वर्गों में हैं और जो मित्रवर्गों में नहीं है उनका जी भी तो उसी की बातों में लगता है ये क्यौं न इन बातों को आनन्दपूव्र्वक सुनैंगे।
पा : परन्तु मित्र बातों ही से तो काम न चलैगा न। देखो ये हिंदी भाषा में नाटक देखने की इच्छा से आए हैं इन्हें कोई खेल दिखाओ।
सू : आज मेरा चित्त तो उन्हीं के चरित्रा में मगन है आज मुझे और कुछ नहीं अच्छा लगता।
पा : तो उनके चरित्रा के अनुरूप ही कोई नाटक करो।
सू : ऐसा कौन नाटक है यों तो सभी नायकों के चरित्रा किसी किसी विषय में उससे मिलते हैं पर आनुपूव्र्वी चरित्रा कैसे मिलैगा।
पा : मित्र मृच्छकटिक हिन्दी में खेलो क्योंकि! उसके नायक चारुदत्त का चरित्रामात्रा इनसे सब मिलता है केवल बसन्तसेना और राजा की हानि है।
स : तो फिर भी आनुपूव्र्वी न हुआ और पुराने नाटक खेलने इनका जी भी न लगैगा कोई नया खेलैं।
पा : (स्मरण करके) हाँ हाँ वह नाटक खेलौ जो तुम उस दिन उद्यान में उनसे सुनते थे,-वह उनके और इस घोर काल के बड़ा ही अनुरूप है उसके खेलने से लोगों का वर्तमान समय का ठीक नमूना दिखाई पड़ेगा और वह नाटक भी नई पुरानी, दोनों रीति मिलके बना है।
सू : हाँ हाँ प्रेमजोगिनी-अच्छी सुरत पड़ी-तो चलो यों ही सही इसी बहाने उसका स्मरण करैं।
पा : चलो ।। (दोनों जाते हैं)
अद्ध्र्र जवनिका पतन
।। इति प्रस्तावना ।।

प्रथम अंक


पहिले गर्भांक के पात्र
टेकचंद : एक महाजन बनिये
छक्कूजी : ऐ
माखनदास : वैष्णव बनियाँ
धनदास
बनितादास
मिश्र : कीर्तन करने वाला
झापटिया : कोड़ा मारकर मंदिर की भीड़ हटाने वाला
जलघरिया : पानी भरने वाला
बालमुकुन्द
मलजी
रामचन्द्र : नायक
दो गुजराती


पहिला गर्भांक
स्थान - मंदिर का चौक
(झपटिया इधर उधर घूम रहा है)
झ : आज अभी कोई दरसनी परसनी नाहीं आयें और कहाँ तक अभहिंन तक मिसरो नहीं आयें अभहीं तक नींद न खुली होइहै। खुलै कहाँ से आधी रात तक बाबू किहाँ बैठ के ही ही ठी ठी करा चाहैं फिर सबेरे नींद कैसे खुलै।
(दोहर माथे में लपेटे आँखें मलते मिश्र आते हैं-देखकर)
झ : का हो मिसिरजी तोरी नींद नहीं खुलती देखो शंखनाद होय गवा मुखिया जी खोजत रहे।
मि : चले त्तो आई थे; अधियै रात के शंखनाद होय तो हम का करै तोरे तरह से हमहू के घर में से निकस के मंदिर में घुस आवना होता तो हमहू जल्दी अउते। हियाँ तो दारानगर से आवना पड़त है। अबहीं सुरजौ नाहीं उगे।
झ : भाई सेवा बड़ी कठिन है, लोहे का चना चबाए के पड़थै, फोकटै थोरे होथी।
मि : भवा चलो अपना काम देखो। (बैठ गया)
(स्नान किये तिलक लगाये दो गुजराती आते हैं)
पहिला : मिसिरजी जय श्रीकृष्ण कहो का समय है।
मि : अच्छी समय है मंगला की आधी समय है बैठो।
प : अच्छा मथुरादास जी वैसी जाओ। (बैठते हैं)
(धोती पहिने 1 धोती ओढ़े छक्कूजी आते हैं और उसी बेस से माखनदास भी आये)
छ : (माखनदास की ओर देखकर) काहो माखनदास एहर आवो।
मा : (आगे बढ़कर हाथ जोड़कर) जै सी किष्ण साहब।
छ : जै श्रीकृष्ण बैठो कहो आलकल बाबू रामचंद का क्या हाल है।
मा : हाल जौन है, तौन आप जनतै हौ, दिन दूना रात चौ गूना। अभईं कल्हौ हम ओ रस्ते रात के आवत रहे तो तबला ठनकत रहा। बस रात दिन हा हा ठी ठी बहुत भवा दुइ चार कवित्त बनाय लिहिन बस होय चुका।
छ : अरे कवित्त तो इनके बापौ बनावत रहे कवित्त बनावै से का होथै और कवित्त बनावना कुछ अपने लोगन का काम थोरै हय ई भाँटन का काम है।
मा : ई तो हुई है पर उन्हैं तो अैसी सेखी है कि सारा जमाना मूरख है और मैं पंडित थोड़ा सा कुछ पढ़ वढ़ लिहिन हैं।
छ : पढ़िन का है पढ़ा वढ़ा कुछ भी नहिनी, एहर ओहर की दुइ चार बात सीख लिहिन किरिस्तानी मते की अपने मारग की बात तो कुछ जनबै नाहीं कर्तें अबहीं कल के लड़का हैं।
मा : और का।
(बालमुकुन्द औ मलजी आते हैं)
दोनों : (छक्कू की ओर देखकर) जय श्रीकृष्ण बाबू साहब।
छ : जय श्रीकृष्ण, आओ बैठो कहो नहाय आयो।
बा : जी भय्या जी का तो नेम है कि बडे़ सबेरे नहा कर फूलघर में जाते हैं तब मंगला के दर्शन करके तब घर में जायकर सेवा में नहाते हैं और मैं तो आज कल कार्तिक के सबब से नहाता हूँ तिस पर भी देर हो जाती है रोकड़ मेरे जिम्मे काकाजी ने कर रक्खा है इससे बिध बिध मिलाते देर हो जाती है फिर कीर्तन होते प्रसाद बँटते ब्यालू बालू कुर्ते बारह कभी एक बजते हैं।
छ : अच्छी है जो निबही जाय कहो कातिक नहाये बाबू रामचंद जाथें कि नाहीं!
बा : क्यों जाते क्यों नहीं अब की दोनों भाई जाते हैं कभी दोनों साथ कभी आगे पीछे कभी इनके साथ मसाल कभी उनके मुझको अकशर करके जब मैं जाता हूँ तब वह नहाकर आते रहते हैं।
छ : मसाल काहे ले जाथै मेहरारुन का मुँह देखै के?
बा : (हँसकर) यह मैं नहीं कह सकता।
छ : कहो मलजी आज फूलघर में नाहीं गयो हिंअई बैठ गयो?
म : आज देर हो गई दर्शन करके जाऊँगा।
छ : तोरे हियाँ ठाकुर जी जागे होहिहैं कि नाहीं?
म : जागे तो न होंगे पर अब तैयारी होगी मेरे हियाँ तो स्त्रिाये जगाकर मंगल भोग धर देती है। फिर जब मैं दर्शन करके जाता हूँ तो भोग सरासर आरती कत्र्ता हूँ।
छ : कहो तोसे रामचंद्र से बोलाचाली है कि नाहीं?
म : बोलचाल तो मैं पर अब यह बात नहीं है आगे तो दर्शन करने का सब उत्सवों पर बुलावा आता था अब नहीं आता तिस्में बड़े साहब तो ठीक ठीक, छोटे चित्त के बड़े खोटे हैं।
(नेपथ्य में)
गरम जल की गागर लाओ।
झ : (गली की ओर देखकर जोर से) अरे कौन जलघरिया है एतनी देर भई अभहीं तोरे गागर लिआवै को बखत नाहीं भई?
(सड़सी से गरम जल की गगरी उठाये सनिया लपेटे जलघरिया आता है।)
झ : कहो जगेसर ई नाहीं कि जब शंखनाद होय तब झटपट अपने काम से पहुँच जावा करो।
ज : अरे चल्ले तो आवथई का भहराय पड़ीं का सुत्तल थोड़े रहली हमहूँ के झापट कंधे पर रख के एहर ओहर घूमै के होत तब न। इहाँ तो गगरा ढोवत कंधा छिल जाला। (यह कहकर जाता है)
(मैली धोती पहिने दोहर सिर में लपेटे टेकचंद आए)
टे : (मथुरादास की ओर देखकर) कहो मथुरादास जी रूडा छो?
म : हाँ साहब, अच्छे हैं। कहिए तो सही आप इतने बड़े उच्छव में कलकत्ते से नहीं आए। हियाँ बड़ा सुख हुआ था, बहुत्त से महाराज लोग पधारे थे। षट रुत छपन भोग में बडे़ आनंद हुए।
टे : भाई साहब, अपने लोगन का निकास घर से बड़ा मुसकिल है। येक तो अपने लोगन का रेल के सवारी से बड़ा बखेड़ा पड़ता है, दूसरे जब जौन काम के वास्ते जाओ जब तक ओका सब इन्तजाम न बैठ जाय तब तक हुँवा जाए से कौन मतलब है और कौन सुख तो भाई साहब श्री गिरिराज जी महाराज के आगे जो देखा है सो अब सपने में भी नहीं है। अहा! वह श्री गोविंदराय जी के पधारने का सुख कहाँ तक कहें।
(धनदास और बनितादास आते हैं)
ध : कहो यार का तिगथौ?
व : भाई साहेब, थोड़ी देर से देख रहे हैं, कोई पंच्छी नजर नाहीं आया।
ध : भाई साहेब, अपने तो ऊ पच्छी काम का जे भोजन सोजन दूनो दे।
ब : तोहरे सिद्धांत से भाई साहेब काम तो नहीं चलता।
ध : तबै न सुरमा घुलाय के आँख पर चरणामृत लगाए हौ जे में पलक बाजी खूब चले, हाँ एक पलक एहरो।
ब : (हँसकर) भाई साहेब अपने तो वैष्णव आदमी हैं, वैष्णविन से काम रक्खित है।
ध : तो भला महाराज के कबौं समर्पन किए हौ कि नाहीं?
ब : कौन चीज?
ध : अरे कोई चौकाली ठुल्ली मावड़ी पामरी ठोली अपने घरवाली।
ब : अरे भाई गोसाँइयन पर तो ससुरी सब आपै भइराई पड़ थीं पवित्र होवै के वास्ते, हमका पहुँचौबे।
ध : गुरु इन सबन का भाग बड़ा तेज है, मालो लूटै मेहररुवो लूटैं।
ब : भाई साहब, बड़ेन का नाम बेचथैं और इन सबन में कौन लच्छन हैं, न पढ़ना जानैं न लिखना, रात दिन हा हा ठी ठी यै है कि और कुछ?
ध : और गुरु इनके बदौलत चार जीवन के और चौन है एक तो भट दूसरे इनके सरबस खबा तिसरे बिरकत और चौथी बाई।
ब : कुछ कहै की बात नाहीं है। भाई मंदिर में रहै से स्वर्ग में रहै। खाए के अच्छा पहिरै के परसादी से महाराज कव्वौ गाढ़ा तो पहिरबै न करियैं, मलमल नागपुरी ढाँकै पहिरियैं, अतरै फुलेल केसर परसादी बीड़ा चाभो सब से सेवकी ल्यौ, ऊपर से ऊ बात का सुख अलगै है।
ध : क्या कहैं भाई साहब हमरो जनम हियँई होता।
ब : अरे गुरु गली गली तो मेहरारू मारी फिरथीं तौहें एहू पर रोनै बना है। अब तो मेहरारू टके सेर हैं। अच्छे अच्छे अमीरनौ के घर की तो पैसा के वास्ते हाथ फैलावत फिरथीं।
ध : तो गुरु हम तो ऊ तार चाही थै जहाँ से उलटा हमैं कुछ मिलै।
ब : भाग होय तो ऐसिसो मिल जायँ। देखो लाड़लीप्रसाद के और बच्चू के ऊ नागरानी और बम्हनिया मिली हैं कि नाहीं!
ध : गुरु, हियों तो चाहे मूड़ मुड़ाये हो चाहे मुँह में एक्को दाँत न होय पताली खोल होय, पर जो हथफेर दे सो काम की।
ब : तोहरी हमारी राय ई बात में न मिलिये।
(रामचन्द्र ठीक इन दोनों के पीछे का किवाड़ खोलकर आता है)
छ : (धीरे से मुँह बना के) ई आएँ। (सब लोगों से जय श्री कृष्ण होती है)।
बा : (रामचंद्र को अपने पास बैठाकर) कहिए बाबू साहब आजकल तो आप मिलते ही नहीं क्या खबगी रहती है?
रा : भला आप ऐसे मित्र से कोई खफा हो सकता है? यह आप कैसी बात करते हैं?
बा : कार्तिक नहाना होता है न?
रा : (हँसकर) इसमें भी कोई सन्देह है!
बा : हँहँहँ फिर आप तो जो काम करैंगे एक तजबीज के साथ ऐं।
(रामचन्द्र का हाथ पकड़ के हँसता है)
रा : भाई ये दोनों (धनदास और बनितादास को दिखाकर) बड़े दुष्ट हैं। मैं किवाड़ी के पीछे खड़ा सुनता था। घंटों से ये स्त्रियों ही की बात करते थे।
बा : यह भवसागर है। इसमें कोई कुछ बात करता है, कोई कुछ बात करता है। आप इन बातों का कहाँ तक खयाल कीजिएगा ऐं! कहिए कचहरी जाते हैं कि नहीं?
रा : जाते हैं कभी कभी-जी नहीं लगता, मुफत की बेगार और फिर हमारा हरिदास बाबू का साथ कुकुर झौंझो, हुज्जते-बंगाल माथा खाली कर डालते हैं। खांव खांव करके, थूँथ थूँथ के, बीभत्स रस के आलंबन, सूर्यनंदन-
बा : (हँसकर) उपमा आप ने बहुत अच्छी दिया और कहिए और अंधरी मजिसटरों1 का क्या हाल है?
रा : हाल क्या है सब अपने अपने रंग में मस्त हैं। काशी परसाद अपना कोठीवाली ही में लिखते हैं सहजादे साहब तीन घंटे में इक सतर लिखते हैं उसमें भी सैंकड़ों गलती। लक्ष्मीसिंह और शिवसिंह अच्छा काम करते हैं और अच्छा प्रयागलाल भी करते हैं, पर वह पुलिस के शत्राु हैं। और विष्णुदास बड़े बवददपदह बींच हैं। दीवानराम हुई नहीं, बाकी रहे फिजिशियन सो वे तो अँगरेज ही हैं, पर भाई कई मूर्खों को बड़ा अभिमान हो गया है, बात बात में तपाक दिखाते और छः महीने को भेज दूँगा कहते हैं।
बा : मैं कनम चाप नहीं समझा।
रा : कनिंग चौप माने कुटीचर!
(नेपथ्य में)
श्री गोविंदराय जी की श्री मंगला खुली (सब दौड़ते हैं)
(परदा गिरता है)
इति मंदिरादर्श नामक प्रथम गर्भांक



दूसरा गर्भांक
दूसरे गर्भांक के पात्रा
दलाल
गंगापुत्र तीर्थस्थ ब्राह्मण
भंडेरिया लिंगिया
दुकानदार
सुधाकर रामचंद (नाटक के नायक) का मुसाहब
झूरी सिंह बदमाश
परदेसी
स्थान-गैबी, पेड़, कुआं, पास बावली
(दलाल, गंगापुत्र, दुकानदार, भंडेरिया और झुरीसिंह बैठे हैं)
द : कहो गहन यह कैसा बीता? ठहरा भोग बिलासी-
माल वाल कुछ मिला, या हुआ कोरा सत्यानाशी?
कोई चूतिया फँसा या नहीं? कोरे रहे उपासी?
ग : मिलै न काहे भैया, गंगा मैया दौलत दासी ।।
हम से पूत कपूत की दाता मनकनिका सुखरासी।
भूखे पेट कोई नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
दू : परदेसियौ बहुत रहे आए?
ग : और साल से बढ़कर।
भ : पितर सौंदनी रही न अमसिया,
झू : रंग है पुराने झंझर ।।
खूब बचा ताड़ो, का कहना,
तूँ हौ चूतिया हंटर।
भ : हम न तड़वै तो के तड़िये? यही तो किया जनम भर ।।
द : जो हो, अब की भली हुई यह अमावसी पुनवासी।
ग : भूखे पेट कोई नहिं, सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
झू : यार लोग तो रोजै कड़ाका करथैं ऐ पैजामा।
ग : ई तो झूठ कहौ, सिंहा,
झू : तू सच बोल्यो, मामा ।।
ग : तोहैं का, तू मार पीट के करथौ अपना कामा।
कोई का खाना, कोई की रंडी, कोई का पगड़ी जामा ।।
झू : ऊ दिन खीपट दूर गए अब सोरहो दंड एकासी।
ग : भूखे पेट कोई नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
झू : जब से आए नए मजिस्टर तब से आफत आई।
जान छिपावत फिरीथै खटमल-
दू : ई तो सच है भाई ।।
झू : ई है ऐसा तेज गुरू बरसन के लिए देथै लदाई।
गोविन पालक मेकलौडो से एकी जबर दोहाई ।।
जान बचावत छिपत फिरीथै घुस गई सब बदमासी।
ग : भूखे पेट तो कोइ नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
झू : तोरे आँख में चरबी छाई माल न पाया गोजर।
कैसी दून की सूझ रही है आसमानों के उप्पर ।।
तर न भए हौ पैदा करके, धर के माल चुतरे तर।
बछिया के बाबा, पँडिया के ताऊ, घुसनि के घुसघुस झरझर ।।
कहाँ की ई तूँ बात निकास्यो खासी सत्यानासी।
भूखे पेट कोई नहिं सुतता, ऐसी है ई कासी ।।
(गाता हुआ एक परदेसी आता है)
प : देखी तुमरी कासी, लोगो, देखी तुमरी कासी।
जहाँ विराजैं विश्वनाथ विश्वेश्वरी अविनासी ।।
आधी कासी भाट भंडोरिया बाम्हन औ संन्यासी।
आधी कासी रंडी मुंडी राँड़ खानगी खासी ।।
लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे बे-बिसवासी।
महा आलसी झूठे शुहदे बे-फिकरे बदमासी ।।
आप काम कुछ कभी करैं नहिं कोरे रहैं उपासी।
और करे तो हँसैं बनावैं उसको सत्यानासी ।।
अमीर सब झूठे और निंदक करें घात विश्वासी।
सिपारसी डरपुकने सिट्टई बोलैं बात अकासी ।।
मैली गली भरी कतवारन सड़ी चमारिन पासी।
नीचे नल से बदबू उबलै मनो नरक चौरासी ।।
कुत्ते भूँकत काटन दौड़ैं सड़क साँड़ सों नासी।
दौड़ैं बंदर बने मुछंदर कूदैं चढ़े अगासी ।।
घाट जाओ तो गंगापुत्तर नोचैं दै गल फाँसी।
करैं घाटिया बस्तर-मोचन दे देके सब झाँसी ।।
राह चलत भिखमंगे नोचैं बात करैं दाता सी।
मंदिर बीच भँड़ेरिया नोचैं करैं धरम की गाँसी ।।
सौदा लेत दलालो नोचैं देकर लासालासी।
माल लिये पर दुकनदार नोचैं कपड़ा दे रासी ।।
चोरी भए पर पूलिस नोचैं हाथ गले बिच ढांसी।
गए कचहरी अमला नोचैं मोचि बनावैं घासी ।।
फिरैं उचक्का दे दे धक्का लूटैं माल मवासी।
कैद भए की लाज तनिक नहिं बे-सरमी नंगा सी ।।
साहेब के घर दौड़े जावैं चंदा देहि निकासी।
चढ़ैं बुखार नाम मंदिर का सुनतहि होंय उदासी ।।
घर की जोरू लड़के भूखे बने दास औ दासी।
दाल की मंडी रंडी पूजै मानो इनकी मासी ।।
आप माल कचरैं छानैं उठि भोरहिं कागाबासी।
बाप के तिथि दिन बाम्हन आगे धरैं सड़ा औ बासी ।।
करि बेवहार साक बांधैं बस पूरी दौलत दासी।
घालि रुपैया काढ़ि दिवाला माल डेकारैं ठांसी ।।
काम कथा अमृत सी पीयैं समुझैं ताहि विलासी।
रामनाम मुंह से नहिं निकसै सुनतहि आवै खांसी ।।
देखी तुमरी कासी भैया, देखी तुमरी कासी।
झू : कहो ई सरवा अपने शहर की एतनी निन्दा कर गवा तूं लोग कुछ बोलत्यौ नाहीं?
गं : भैया, अपना तो जिजमान है अपने न बोलैंगे चाहे दस गारी भी दे ले।
भं : अपनो जिजमानै ठहरा।
द : और अपना भी गाहकै है।
दू : आर भाई हमहूँ चार पैसा एके बदौलत पावा है।
झू : तूं सब का बोलबो तूं सब निरे दब्बू चप्पू हौ, हम बौलबै। (परदेसी से) ए चिड़ियावाली के परदेसी फरदेसी। कासी की बहुत निन्दा मत करो मुँह बस्सैये का कहैं के साहिब मजिस्टर हैं नाहीं तो निन्दा करना निकास देते।
प : निकास क्यों देते? तुमने क्या किसी का ठीका लिया है?
झू : हाँ हाँ, ठीका लिया है मटियाबुर्ज।
प : तो क्या हम झूठ कहते हैं?
झू : राम राम तू भला कबौं झूठ बोलबो तू तो निरे पोथी के बेठन हौ।
प : बेठन क्या।
झू : बे ते मत करो गप्पों के, नाहीं तो तोरी अरबी फारसीं घुसेड़ देवै।
प : तुम तो भाई अजब लड़ाके हो, लड़ाई मोल लेते फिरते हौ। वे ते किसने किया है? यह तो अपनी अपनी राय है कोई किसी को अच्छा कहता है कोई बुरा कहता है। इससे बुरा क्या मानना।
झू : सच है पनचोरा, तू कहै सो सच्च, बुढ्ढी तू कहे सो सच्च।
प : भाई अजब शहर है, लोग बिना बात ही लडे़ पड़ते हैं।
(सुधाकर आता है)
(सब लोग आशीर्वाद, दंडवत, आओ आओ शिष्टाचार करते हैं)
गं : भैया इनके दम के चौन है। ई अमीरन के खेलउना हैं।
झू : खेलउना का हैं टाल खजानची खिदमतगार सबै कुछू हैं।
सु : तुम्हैं साहब चर्रिये बूकना आता है।
झू : चर्री का, हमहन झूठ बोलील; अरे बखत पड़े पर तूँ रंडी ले आव; मंगल के मुजरा मिले ओेमें दस्तूरी काट; पैर दाबः रुपया पैसा अपने पास रक्खः यारन के दूरे से झाँसा बतावः। ऐ! ले गुरु तोहीं कहः हम झूठ कहथई।
गं : अरे भैया बिचारे ब्राह्मण कोई तरह से अपना कालच्छेप करथै ब्राह्मण अच्छे हैं।
भं : हाँ भाई न कोई के बुरे में न भले में और इनमें एक बड़ी बात है कि इनकी चाल एक रंगै हमेसा से देखी थै।
गं : और साहेब एक अमीर के पास रहै से इनकी चार जगह जान पहिचान होय गई। अपनी बात अच्छी बनाय लिहिन हैं।
दू : हाँ भाई बाजार में भी इनकी साक बँधी है।
सु : भया भया यह पचड़ा जाने दो, हो यह नई मूरत कौन है?
झू : गुरु साहब हम हियाँ भाँग का रगड़ा लगावत रहें बीच में गहन के मारे-पीटे ई धूआँकस आय गिरे।
आके पिंजडे़ में फँसा अब तो पुराना चंडूल।
लगी गुलसन की हवा दुम का हिलाना गया भूल ।।
(परदेशी के मुँह के पास चुटकी बजाता है और नाक के पास से उँगली लेकर दूसरे हाथ की उँगली पर घुमाता है)
प : भाई तुम्हारे शहर सा तुम्हारा ही शहर है, यहाँ की लीला ही अपरंपार है।
झू : तोहूँ लीला करथौ।
प : क्या?
झू : नहीं ई जे तोहूँ रामलीला में जाथौ कि नाहीं?
(सब हँसते हैं)
प : (हाथ जोड़कर) भाई तुम जीते हम हारे, माफ करो।
झू : (गाता है) तुम जीते हम हारे साधो तुम जीते हम हारे।
सु : (आप ही आप) हा! क्या इस नगर की यही दशा रहेगी? जहाँ के लोग ऐसे मूर्ख हैं वहाँ आगे किस बात की वृद्धि की संभावना करें। केवल इस मूर्खता छोड़ इन्हें कुछ आता ही नहीं! निष्कारण किसी को बुरा भला कहना। बोली ही बोलने में इनका परम पुरुषार्थ! अनाब शनाब जो मुँह से आया बक उठे न पढ़ना न लिखना! हाय! भगवान् इनका कब उद्धार करैगा!!
झू : गुरु, का गुड़बुड़-गुड़बुड़ जपथौ?
सु : कुछ नाहीं भाई यही भगवान का नाम।
झू : हाँ भाई, भई एह बेरा टें टें न किया चाहिए रामराम की बखत भई तो चलो न गुरू।
सब : चलो भाई।
(जवनिका गिरती है)
(इति गैबी ऐबी नामक दूसरा गर्भ अंक)


तीसरा गर्भांक
स्थान-मुगलसराय का स्टेशन
(मिठाई वाले, खिलौने वाले, कुली और चपरासी इधर उधर फिरते हैं।
सुधाकर एक विदेशी पंडित और दलाल बैठे हैं)
द : (बैठ के पान लगाता है) या दाता राम! कोई भगवान से भेंट कराना।
वि. पं. : (सुधाकर से)-आप कौन हैं। कहाँ से आते हैं।
सु : मैं ब्राह्मण हूँ, काशी में रहता हूँ और लाहोर से आता हूँ।
वि. पं : क्या आपका घर काशी ही जी में है?
सु : जी हाँ।
वि. पं : भला काशी कैसा नगर है?
सु : वाह! आप काशी का वृत्तान्त अब तक नहीं जानते भला त्रौलोक्य में और दूसरा ऐसा कौन नगर है जिसको काशी की समता दी जाय।
वि. पं. : भला कुछ वहाँ की शोभा हम भी सुनैं?
सु : सुनिए, काशी का नामांतर वाराणसी है जहाँ भगवती जद्द नंदिनी उत्तरवाहिनी होकर धनुषाकार तीन ओर से ऐसी लपटी हैं मानो इसको शिव की प्यारी जानकर गोद में लेकर आलिंगन कर रही हैं, और अपने पवित्र जलकण के स्पर्श से तापत्राय दूर करती हुई मनुष्यमात्रा को पवित्र करती हैं। उसी गंगा के तट पर पुण्यात्माओं के बनाए बड़े-बड़े घाटों के ऊपर दोमंजिले, चौमंजिले, पँचमंजिले और सतमंजिले ऊँचे ऊँचे घर आकाश से बातें कर रहे हैं मानो हिमालय के श्वेत शृंग सब गंगा सेवन करने को एकत्रा हुए हैं। उसमें भी माधोराय के दोनों धरहरे तो ऐसे दूर से दिखाई देते हैं मानों बाहर के पथिकों को काशी अपने दोनों हाथ ऊँचे करके बुलाती है। साँझ सबेरे घाटों पर असंख्य स्त्री पुरुष नहाते हुए ब्राह्मण लोग संध्या का शास्त्रार्थ करते हुए, ऐसे दिखाई देते हैं मानो कुबेरपुरी की अलकनंदा में किन्नरगण और ऋषिगण अवगाहन करते हैं, और नगाड़ा नफीरी शंख घंटा झांझस्तव और जय का तुमुल शब्द ऐसा गूंजता है मानों पहाड़ों की तराई में मयूरों की प्रतिध्वनि हो रही है, उसमें भी जब कभी दूर से साँझ को वा बड़े सबेरे नौबत की सुहानी धुन कान में आती है तो कुछ ऐसी भली मालूम पड़ती है कि एक प्रकर की झपकी सी आने लगती है। और घाटों पर सबेरे धूप की झलक और साँझ को जल में घाटों की परछाहीं की शोभा भी देखते ही बन आती है।
जहाँ ब्रज ललना ललित चरण युगल पूर्ण परब्रह्म सच्चिदानंद घन बासुदेव आप ही श्री गोपाललाल रूप धारण करके प्रेमियों को दर्शन मात्रा से कृतकृत्य करते हैं, और भी बिंदुमाधवादि अनेक रूप से अपने नाम धाम के स्मरण दर्शन, चिन्तनादि से पतितों को पावन करते हुए विराजमान हैं।
जिन मंदिरों में प्रातःकाल संध्या समय दर्शनीकों की भीड़ जमी हुई है, कहीं कथा, कहीं हरिकीर्तन, कहीं नामकीर्तन कहीं ललित कहीं नाटक कहीं भगवत लीला अनुकरण इत्यादि अनेक कौतुकों के मिस से भी भगवान के नाम गुण में लोग मग्न हो रहे हैं।
जहाँ तारकेश्वर विश्वेश्वरादि नामधारी भगवान भवानीपति तारकब्रह्म का उपदेश करके तनत्याग मात्रा से ज्ञानियों को भी दुर्लभ अपुनर्भव परम मोक्षपद-मनुष्य पशु कीट पतंगादि आपामर जीवनमात्रा को देकर उसी क्षण अनेक कल्पसंचित महापापपुंज भस्म कर देते हैं।
जहाँ अंधे, लँगड़े, लूले, बहरे, मूर्ख और निरुद्यम आलसी जीवों को भी भगवती अन्नपूर्णा अन्न वस्त्रादि देकर माता की भाँति पालन करती हैं।
जहाँ तक देव, दानव, गंधर्व, सिद्ध चारण, विद्याधर देवर्षि, राजर्षिगण और सब उत्तम उत्तम तीर्थ-कोई मूर्तिमान, कोई छिपकर और कोई रूपांतर करके नित्य निवास करते हैं।
जहाँ मूर्तिमान सदाशिव प्रसन्न वदन आशुतोष सकलसद्गुणैकरत्नाकर, विनयैकनिकेतन, निखिल विद्याविशारद, प्रशांतहृदय, गुणिजनसमाश्रय, धार्मिकप्रवर, काशीनरेश महाराजाधिराज श्रीमदीश्वरीप्रसादनारायणसिंह बहादुर और उनके कुमारोपम कुमार श्री प्रभुनारायणसिंह बहादुर दान धम्र्मसभा रामलीलादि के मिस धर्मोन्नति करते हुए और असत् कम्र्म नीहार को सूर्य की भाँति नाशते हुए पुत्र की तरह अपनी प्रजा का पालन करते हैं।
जहाँ श्रीमती चक्रवर्तिनिचयपूजितपादपीठा श्रीमती महारानी विक्टोरिया के शासनानुवर्ती अनेक कमिश्नर जज कलेक्टरादि अपने अपने काम में सावधान प्रजा को हाथ पर लिए रहते हैं और प्रजा उनके विकट दंड के सर्वदा जागने के भरोसे नित्य सुख से सोती है।
जहाँ राजा शंभूनारायणसिंह बाबू फतहनारायणसिंह बाबू गुरुदास बाबू माधवदास विश्वेश्वरदास राय नारायणदास इत्यादि बड़े बड़े प्रतिष्ठित और धनिक तथा श्री बापूदेव शास्त्री, श्रीबाल शास्त्री से प्रसिद्ध पंडित, श्रीराजा शिवप्रसाद, सैयद अहमद खाँ बहादुर ऐसे योग्य पुरुष, मानिकचंद्र मिस्तरी से शिल्पविद्या निपुण, वाजपेयी जी से तन्त्राीकार, श्री पंडित बेचनजी, शीतलजी, श्रीताराचरण से संस्कृत के और सेवक हरिचंद्र से भाषा के कवि बाबू अमृतलाल, मुंशी गन्नूलाल, मुंशी श्यामसुंदरलाल से शस्त्राव्यसनी और एकांतसेवी, श्रीस्वामि विश्वरूपानंद से यति, श्रीस्वामि विशुद्धानंद से धम्र्मोपदेष्टा, दातृगणैकाग्रगण्य श्रीमहाराजाधिराज विजयनगराधिपति से विदेशी सर्वदा निवास करके नगर की शोभा दिन दूनी रात चौगुनी करते रहते हैं।
जहाँ क्वींस कालिज (जिसके भीतर बाहर चारों ओर श्लोक और दोहे खुदे हैं), जयनारायण कालिज से बड़े बंगाली टोला, नार्मल और लंडन मिशन से मध्यम तथा हरिश्चंद्र स्कूल से छोटे अनेक विद्यामंदिर हैं, जिनमें संस्कृत, अँगरेजी, हिन्दी, फारसी, बँगला, महाराष्ट्री की शिक्षा पाकर प्रति वर्ष अनेक विद्यार्थी विद्योत्तीर्ण होकर प्रतिष्ठालाभ करते हैं; इनके अतिरिक्त पंडितों के घर में तथा हिंदी फारसी पाठकों की निज शाला में अलग ही लोग शिक्षा पाते हैं, और राय शंकटाप्रसाद के परिश्रमोत्पन्न पबलिक लाइब्रेरी, मुनशी शीतलप्रसाद का सरस्वती-भवन, हरिश्चंद्र का सरस्वती भंडार इत्यादि अनेक पुस्तक-मंदिर हैं, जिनमें साधारण लोग सब विद्या की पुस्तकें देखने पाते हैं।
जहाँ मानमंदिर ऐसे यंत्राभवन, सारनाथ की धंमेक से प्राचीनावशेष चिद्द, विश्वनाथ के मंदिर का वृषभ और स्वर्ण-शिखर, राजा चेतसिंह के गंगा पार के मंदिर, कश्मीरीमल की हवेली और क्वींस कालिज की शिल्पविद्या और माधोराय के धरहरे की ऊँचाई देखकर विदेशी जन सर्वदा रहते हैं।
जहाँ महाराज विजयनगर के तथा सरकार के स्थापित स्त्री-विद्यामंदिर, औषधालय, अंधभवन, उन्मत्तागा इत्यादिक लाकद्वयसाधक अनेक कीर्तिकर कार्य हैं वैसे ही चूड़वाले इत्यादि महाजनों का सदावत्र्त और श्री महाराजाधिराज सेंधिया आदि के अटल सत्रा से ऐसे अनेक दीनों के आश्रयभूत स्थान हैं जिनमें उनको अनायास भी भोजनाच्छादन मिलता है।
अहोबल शास्त्री, जगन्नाथ शास्त्री, पंडित काकाराम, पंडित मायादत्त, पंडित हीरानंद चौबे, काशीनाथ शास्त्री, पंडित भवदेव, पंडित सुखलाल ऐसे धुरंधर पंडित और भी जिनका नाम इस समय मुझे स्मरण नहीं आता अनेक ऐसे ऐसे हुए हैं, जिनकी विद्या मानों मंडन मिश्र की परंपरा पूरी करती थी।
जहाँ विदेशी अनेक तत्ववेत्ता धार्मिक धनीजन घरबार कुटुंब देश विदेश छोड़कर निवास करते हुए तत्वचिंता में मग्न सुख दुःख भुलाए संसार की यथारूप में देखते सुख से निवास करते हैं।
जहाँ पंडित लोग विद्यार्थियों को ऋक्, यजुः साम, अथर्व, महाभारत, रामायण, पुराण, उपपुराण, स्मृति, न्याय, व्याकरण, सांख्य, पातंजल, वैशषिक, मीमांसा, वेदांत, शैव, वैष्णव, अलंकार, साहित्य, ज्योतिष इत्यादि शास्त्रा सहज पढ़ाते हुए मूर्तिमान गुरु और व्यास से शोभित काशी की विद्यापीठता सत्य करते हैं।
जहाँ भिन्न देशनिवासी आस्तिक विद्यार्थीगण परस्पर देव-मंदिरों में, घाटों पर, अध्यापकों के घर में, पंडित सभाओं में वा मार्ग में मिलाकर शास्त्रार्थ करते हुए अनर्गल धारा प्रवाह संस्कृत भाषण से सुनने वालों का चित्त हरण करते हैं।
जहाँ स्वर लय छंद मात्रा, हस्तकंपादि से शुद्ध वेदपाठ की ध्वनि से जो मार्ग में चलते वा घर बैठे सुन पड़ती है, तपोवन की शोभा का अनुभव होता है।
जहाँ द्रविड़, मगध, कान्यकुब्ज, महाराष्ट्र, बंगाल, पंजाब, गुजरात इत्याादि अनेक देश के लोग परस्पर मिले हुए अपना-अपना काम करते दिखाते हैं और वे एक एक जाति के लोग जिन मुहल्लों में बसे हैं वहाँ जाने से ऐसा ज्ञान होता है मानों उसी देश में आए हैं, जैसे बंगाली टोले में ढाके का, लहौरी टोले में अमृतसर का और ब्रह्माघाट में पूने का भ्रम होता है।
जहाँ निराहार, पयाहार, यताहार, भिक्षाहार, रक्तांबर, श्वेतांबर, नीलांबर, चम्र्माम्बर, दिगंबर, दंडी, संन्यासी, ब्रह्मचारी, योगी, यती, सेवड़ा, फकीर, सुथरेसाई, कनफटे, ऊध्र्ववाहु, गिरि, पुरी, भारती, वन, पर्वत, सरस्वती, किनारामी, कबीरी, दादूपंथी, नान्हकसही, उदासी, रामानंदी, कौल, अघोरी, शैव, वैष्णव, शाक्त गणपत्य, सौर, इत्यादि हिंदू और ऐसे ही अनेक भाँति के मुसलमान फकीर नित्य इधर से उधर भिक्षा उपार्जन करते फिरते हैं और इसी भाँति सब अंधे लँगड़े, लूले, दीन, पंगु, असमर्थ लोग भी शिक्षा पाते हैं, यहाँ तक कि आधी काशी केवल दाता लोग के भरोसे नित्य अन्न खाती है।
जहाँ हीरा, मोती, रुपया, पैसा, कपड़ा, अन्न घी, तेल, अतर, फुलेलक, पुस्त खिलौने इत्यादि की दुकानों पर हजारों लोग काम करते हुए मोल लेते बेचते दलाली करते दिखाई पड़ते हैं।
जहाँ की बनी कमखाब बाफता, हमरू, समरू; गुलबदन, पोत, बनारसी, साड़ी, दुपट्टे, पीताम्बर, उपरने, चोलखंड, गोंटा, पट्ठा इत्यादि अनेक उत्तम वस्तुएँ देशविदेश जाती हैं और जहाँ की मिठाई, खिलौने, चित्रा टिकुली, बीड़ा इत्यादि और भी अनेक सामग्री ऐसी उत्तम होती हैं कि दूसरे नगर में कदापि स्वप्न में भी नहीं बन सकतीं।
जहाँ प्रसादी तुलसी माला फूल से पवित्र और स्नायी स्त्री पुरुषों के अंग के विविध चंदन, कस्तूरी, अतर इत्यादि सुगंधित द्रव्य के मादक आमोद संयुक्त परम शीतलकण तापत्राय विमोचक गंगाजी के स्पर्श मात्रा से अनेक लौकिक अलौकिक ताप से तापित मनुष्यों का चित सर्वदा शीतल करते हैं।
जहाँ अनेक रंगों के कपड़े पहने सोरहो सिंगार बत्तीसो अभरन सजे पान खाए मिस्सी की धड़ी जमाए जोबन मदमाती झलझमाती हुई बारबिलासिनी देवदर्शन वैद्य ज्योतिषी गुणी-गृहगमन जार मिलन गानश्रावण उपवनभ्रमण इत्यादि अनेक बहानों से राजपथ में इधर-उधर झूमती घूमती नैनों के पटे फेरती बिचारे दीन पुरुषों को ठगती फिरती हैं और कहाँ तक कहैं काशी काशी ही है। काशी सी नगरी त्रौलोक्य में दूसरी नहीं है। आप देखिएगा तभी जानिएगा बहुत कहना व्यर्थ है।
वि.पं : वाह वाह! आपके वर्णन से मेरे चित्त का काशी दर्शन का उत्साह चतुर्गुण हो गया। यों तो मैं सीधा कलकत्ते जाता पर अब काशी बिन देखे कहीं न जाऊँगा। आपने तो ऐसा वर्णन किया मानो चित्रा सामने खड़ा कर दिया। कहिए वहाँ और कौन-कौन गुणी और दाता लोग हैं जिनसे मिलूं।
सु : मैं तो पूर्व ही कह चुका हूँ कि काशी गुणी और धनियों की खान है यद्यपि यहाँ के बडे़-बड़े पंडित जो स्वर्गवासी हुए उनसे अब होने कठिन हैं, तथापि अब भी जो लोग हैं दर्शनीय ओर स्मरणीय हैं। फिर इन व्यक्तियों के दर्शन भी दुर्लभ हो जायेंगे और यहाँ के दाताओं का तो कुछ पूछना ही नहीं। चूड़ की कोठी वालों ने पंडित काकाराम जी के ऋण के हेतु एक साथ बीस सहस्र मुद्रा दीं। राजा पटनीमल के बाँधे धम्र्मचिन्ह कम्र्मनाशा का पुल और अनेक धम्र्मशाला, कुएँ, तालाब, पुल इत्यादि भारतवर्ष के प्रायः सब तीर्थों पर विद्यमान हैं। साह गोपालदास के भाई साह भवानीदास की भी ऐसी उज्ज्वल कीत्र्ति है और भी दीवान केवलकृष्ण, चम्पतराय अमीन इत्यादि बडे़-बड़े दानी इसी सौ वर्ष के भीतर हुए हैं। बाबू राजेंद्र मित्र की बाँधी देवी पूजा बाबू गुरु दास मित्र के यहाँ अब भी बड़े धूम से प्रतिवर्ष होती है। अभी राजा देवनारायणसिंह ही ऐसे गुणज्ञ हो गए हैं कि उनके यहाँ से कोई खाली हाथ नहीं फिरा। अब भी बाबू हरिश्चंद्र इत्यादि गुणग्राहक इस नगर की शोभा की भाँति विद्यमान हैं। अभी लाला बिहारीलाल और मुंशी रामप्रताप जी ने कायस्थ जाति का उद्धार करके कैसा उत्तम कार्य किया। आप मेरे मित्र रामचंद्र ही को देखिएगा। उसने बाल्यावस्था ही में लक्षावधि मुद्रा व्यय कर दी है। अभी बाबू हरखचंद मरे हैं तो एक गोदान नित्य करके जलपान करते थे। कोई भी फकीर यहाँ से खाली नहीं गया। दस पंद्रह रामलीला इन्हीं काशीवालों के व्यय से प्रति वर्ष होती है और भी हजारों पुण्यकार्य यहाँ हुआ ही करते हैं। आपको सबसे मिलाऊँगा आप काशी चलें तो सही।
वि. पं : आप लाहोर क्यों गए थे।
सु : (लंबी साँस लेकर) कुछ न पूछिए योंही सैर को गया था।
द : (सुधाकर से) का गुरु। कुछ पंडितजी से बोहनीवांड़े का तार होय तो हम भी साथै चलूँचैं।
सु : तार तो पंडितवाड़ा है कुछ विशेष नहीं जान पड़ता।
द. : तब भी फोंक सऊडे़ का मालवाड़ा। कहाँ तक न लेऊचियै।
सु. : अब तो पलते पलते पलै।
वि. : यह इन्होंने किस भाषा में बात की?
सु. : यह काशी ही की बोली है, ये दलाल हैं, सो पूछते थे कि पंडितजी कहाँ उतरेंगे।
वि. : तो हम तो अपने एक सम्बन्धी के यहाँ नीलकंठ पर उतरेंगे।
सु. : ठीक है, पर मैं आपको अपने घर अवश्य ले जाऊँगा।
वि. : हाँ हाँ इस्में कोई संदेह है? मैं अवश्य चलूँगा।
(स्टेशन का घंटा बजता है और जवनिका गिरती है)
इति प्रतिच्छवि-वाराणसी नाम तीसरा गर्भाकं
समाप्त हुआ


चतुर्थ गर्भांक।। प्रथम अंक ।।
स्थान-बुभुक्षित दीक्षित की बैठक
(बुभुक्षित दीक्षित, गप्प पंडित, रामभट्ट, गोपालशास्त्री, चंबूभट्ट, माधव शास्त्री आदि लोग पान बीड़ा खाते और भाँग बूटी की तजबीज करते बैठे हैं;
इतने में महाश कोतवाल अर्थात् निमंत्राण करने वाला आकर चौक
में से दीक्षित को पुकारता है)
महाश : काहो, बुभुक्षित दीक्षित आहेत?
बुभुक्षित : (इतना सुनते ही हाथ का पान रखकर) कोण आहे? (महाश आगे बढ़ता है) वाह, महाश तु आहेश काय? आय बाबा आज किति ब्राह्मण आमच्या तड़ांत देतो? सरदारनी किती सांगीतलेत! (थोड़ा ठहरकर) कायर ठोक्याच्या कमरान्त सहस्रभोजन कुणाच्या यजमानाचे चाल्ले आहे?2
महाश : दीक्षित जी! आज ब्राह्मणाची अशी मारामार झाली कि मी माँहीं सांगूँ शकत नाहीं-कोण तो पचड़ा!!1
बु.भु. : खरें, काय मारामार झाली? अच्छा ये तर बैठकेंत पण आखेरीस आमचे तड़ाची काय व्यवस्था? ब्राह्मण आणलेस की नाहीं? काँ हात हलवीतच आलास?2
महाश : (बैठक में बैठकर जल माँगता है) दीक्षित जी थोडे़ से पाणी द्या, तहान बहुत लागली आहे।3
बुभु. : अच्छा भाई, थोड़ा सा ठहर अत्ता उनातून आजा आहेस, बूटी ही बनतेच आहे। पाहिजे तर बूटीचच पाणी पी। अच्छा साँग तर कसे काय ब्राह्मण किती मिलाले?4
महाश : गुरु, ब्राह्मण तो आज 25 निकाले, यार लोग आपके शागिर्द हैं कि और किसके?
चंबूभट्ट : (बडे़ आनंद से) क्या भाई सच कहो-25 ब्राह्मण मिलाले?
महाश : हो गुरु! 25 ब्राह्मण तर नुसते सहस्रभोजनाचे, परंतु आजचे वसंतपूजतेचे तर शिवाय च-आणखी सभेकरतां तर पेष लावलाच आहे पण-5
गोपाल, माधव शास्त्री : (घबड़ाकर) काय महाश पण काँ? सभेचें काम कुणाकड़े आहे? अणखी सभा कधीं होणार? आँ?6
महाश : पण इतवें$च कीं हा यजमान पाप नगरांत रहतो, आणि याला एक कन्या आहे ती गतभर्तृका असून सकेशा आहे आणि तीर्थ-स्थलीं तर क्षौर करणें अवश्य पण क्षौरेकरून कनयेंची शोभा जाईल या करितां जर कोणी असा शास्त्रीय आधार दाखवील तर एक हजार रुपयांची सभाकरण्याचा त्यांचा विचार आहे व या कामांत धनतुंदिल शास्त्रीनी हात घातला आहे।1
गप्प पंडित : अं: , तो ऐसी झुल्लक बात के हेतु शास्त्राधार का क्या काम है? इसमें तो बहुत से आधार मिलेंगे।
माधव शास्त्री : हाँ पंडित जी आप ठीक कहते हैं, क्योंकि हम लोगों का वाक्य और ईश्वर का वाक्य समान ही समझना चाहिए ”विप्रवाक्ये जनार्दनः“ ”ब्राह्मणो मम दैवतं“ इत्यादि।
गोपाल : ठीकच आहे, आणि जरि कदाचित् असल्या दुर्घट कामानी आम्ही लोकदृष्टया निन्द्य झालों तथापि वन्द्यच आहों, कारण श्री मभागवतांत ही लिहलें आहे ”विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्येत कश्चनेत्यादि।“2
गप्प पंडित : हाँ जी, और इसमें निंद्य होने का भी क्या कारण? इसमें शास्त्रा के प्रमाण बहुत से हैं और युक्ति तो हई है। पहिले यही देखिए कि इस क्षौर कर्म से दो मनुष्यों को अर्थात् वह कन्या और उसके स्वजन इनको बहुत ही दुःख होगा ओर उसके प्रतिबंध से सबको परम आनंद होगा। तब यहाँ इस वचन को देखिए-
”येन केनाप्युपायेन यस्य कस्यापि देहिनः।
संतोष जनयेत् प्राज्ञस्तदेवेश्वर पूजनं ।।“
बुभु. : और ऐेसे बहुत से उदाहरण भी इसी काशी में होते आए हैं। दूसरा काशीखंड ही में कहा है ‘येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसीगतिः।’
चंबूभट्ट : मूर्खतागार का भी यह वाक्य है ‘अधवा वाललवनं जीव- नाद्र्दनवद्भवेत्’। संतोषसिंधु में भी ‘सकेशैव हि संस्थाप्या यदि स्यात्तोषदा नृणां’।
महाश : दीक्षित जी! बूटी झाली-अब छने जल्दी कारण बहुत प्यासा जीव होऊन गेला अणखी अझून पुष्कल ब्राह्मण सांगायचे आहेत।1
बुभु. : (भांग की गोली और जल, बरतन, कटोरा, साफी लेकर) शास्त्री जी! थोड़े से बढ़ा तर।2
माधव शास्त्री : दीक्षित जी! हें माँझ काम नह्नं, कारण मी अपला खाली पीण्याचा मालिक आहे, मला छानतां येत नाहीं।3 (गोपाल शास्त्री की ओर दिखलाकर) ये इसमें परम प्रवीण हैं।
गोपाल शास्त्री : अच्छा दीक्षित जी, मीच आलों सही।4
चंबूभट्ट : (इन सबों को अपने काम में निमग्न देखकर) बरें मग महाश अखेरीस तड़ाचे किसी ब्राह्मण सहस्रभोजनावे व बसंत पूजेचे किती?5
महाश! : दीक्षिताचे तड़ांत आज एकंदर 25 ब्राह्मण; पैंकीं 15 सहस्र भोजनाकड़े आणि 10 वसंतपूजेकड़े-6
माधव शास्त्री : आणि सभेचे?1
महाश : सभेचे तर भी सांगीतलेंच कीं धनतुंदिल शास्त्रीचे अधिकारांत आहे, आणि दोन तीन दिवसांत ते बंदोबस्त करणार आहेत।2
गप्प पंडित : क्यों महाश! इस सभा में कोई गौड़ पंडित भी हैं वा नहीं?
महाश : हाँ पंडित जी, वह बात छोड़ दीजिए, इसमें तो केवल दाक्षिणात्य, द्राविण और क्वचित् तैलंग भी होंगे, परंतु सुना है कि जो इसमें अनुमति करेंगे वे भी अवश्य सभासद होंगे।
गप्प पंडित : इतना ही न, तब तो मैंने पहिले ही कहा है, माधव शास्त्री! अब भाई यह सभा दिलवाना आपके हाथ में है।
माधव : हाँ पंडित जी, मैं तो अपने शक्त्यनुसार प्रयत्न करता हूँ, क्योंकि प्रायः काका धनतुंदिल शास्त्री जो कुछ करते हैं उसका सब प्रबंध मुझे ही सौंप देते हैं। (कुछ ठहर कर) हाँ, पर पंडित जी, अच्छा स्मरण हुआ, आपसे और न्यू फांड ;छमू विदकद्ध शास्त्री से बहुत परिचय है, उन्हीं से आप प्रवेश कीजिए, क्योंकि उनसे और काका जी से गहरी मित्रता है।
गप्प पंडित : क्या क्या शास्त्री जी? न्यू-क्या? मैंने यह कहीं सुना नहीं।
गोपाल : कभी सुना नहीं इसी हेतु न्यू फांड।
गप्प पंडित : मित्र! मेरा ठट्टा मत करो। मैं यह तुम्हारी बोली नहीं समझता। क्या यह किसी का नाम है? मुझे मालूम होता है कि कदाचित् यह द्रविड़ त्रिलिंग आदि देश के मनुष्य का नाम होगा। क्योंकि उधर की बोली मैंने सुनी है उसमें मूर्द्धन्य वर्ण प्रायः बहुत रहते हैं।
माधव शास्त्री : ठीक पंडित जी, अब आप का तर्कशास्त्रा पढ़ना आधा सफल हुआ। अस्तु ये इधर ही के हैं जो आप के साथ रामनगर गए थे, जिन्होंने घर में तमाशे वाले की बैठक की थी-
गप्प पंडित : हाँ, हाँ, अब स्मरण हुआ, परंतु उनका नाम परोपकारी शास्त्री है और तुम क्या भांड कहते हो?
गोपाल शास्त्री : वह पंडित जी, भांड नहीं कहा फांड कहा-न्यू फांड अर्थात् नये शौखीन। सारांश प्राचीन शौखीन लोगों ने जो जो कुछ पदार्थ उत्पन्न किए, उपभुक्त किए उन ही उनके उच्छिष्ट पदार्थ का अवलंबन करके वा प्राचीन रसिकों की चाल चलन को अच्छी समझ हमको भी लोक वैसा ही कहे आदि से खींच खींच के रसिकता लाना, क्या शास्त्री जी ऐसा न इसका अर्थ?
माधव शास्त्री : भाई, मुझे क्यों नाहक इसमें डालते हो-
गप्प पंडित : अच्छा, जो होय मुझे उसके नाम से क्या काम। व्यक्ति मैंने जानी परंतु माधव जी आप कहते हैं और मुझसे उनसे भी पूर्ण परिचय है और उनको उनका नाम सच शोभता है, परंतु भाई वे तो बड़े आढ्य मान्य हैं और कंजूस भी हैं-और क्या तुमसे उनसे मित्रता मुझसे अधिक नहीं है। यहाँ तक शयनासन तक वे तुमको परकीय नहीं समझते।
माधव शास्त्री : पंडित जी! वह सर्व ठीक है, परंतु अब वह भूतकालीन हुई। कारण ‘अति सर्वत्रा वर्जयेत्’-
बुभु. : हाँ पंडित जी! अब क्षण भर इधर बूटी को देखिए, लीजिए। (एक कटोरा देकर पुनः दूसरा देते हैं)
गप्प पंडित : वाह दीक्षित जी, बहुत ही बढ़िया हुई।
चंबूभट्ट : (सब को बूटी देकर अपनी पारी आई देखकर) हाँ-हाँ दीक्षित जी, तिकड़ेच खतम करा भी आज कल पीत नाहीं।1
गोपाल माधव : काँ भट जो! पुरे आतां, हे नखरे कुठे शिकलात, या-प्या-हवेने व्यर्थ थंडी होते।2
चंबूभट्ट : नाहीं भाई भी सत्य साँगतों, भला सोसत नाहीं। तुम्हाला माझे नखरे वाटतात पण हे प्रायः इथले काशीतलेच आहेत, व अपल्या सारख्यांच्या परम प्रियतम सफेत खड़खड़ीत उपर्णा पाँघरणार अनाथा बालानींच शिकविलेंन बरें।1
(सब आग्रह करके उसको पिलाते हैं)
महाश : कां गुरु दीक्षित जी अब पलेती जमविली पाहिजे।2
बुभु. : हाँ भाई, घे तो बंटा आणि लाव तर एक दोन चार।3
महाश : (इतने में अपना पान लगाकर खाता है और दीक्षित जी से)
दीक्षित जी, 15 ब्राह्मण ठोक्याच्या कमर्यांत पाटावा, दाहा बाजतां पानें माँडलो जातील, आणि आज रात्राी बसंतपूजेस 10 ब्राह्मण लवकर पाठवा कारण मग दूसरे तड़ाचे ब्राह्मण येतील (ऐसा कहता हुआ चला जाता है)4
बुभु. : (उसको पुकारते हुए जाते हैं) महाश! दक्षिणा कितनी?
(महाश वहीं से चार अंगुली दिखाकर गडा कहकर गया)
माधव : दीक्षित जी! क्या कहीं बहरी ओर चलिएगा?
गोपाल : (दीक्षित से) हाँ गुरु, चलिए आज बड़ी वहाँ लहरा है।
बुभु. : भाई बहरीवर मी जाऊन इकडचा बन्दोबस्त कोण करील?5
गोपाल : अं: गुरू इतके 15 ब्राह्मण्यांत घबड़ावता। सर्वभक्षास साँगीतले ब्राह्मण जे झाले। न्यू फांड की पत्ती है।6
गप्प पंडित : क्या परोपकारी की पत्ती है? खाली पत्ती दी है कि और भी कुछ है? नाहीं तो मैं भी चलूँ।
माधव शास्त्री : पत्ती क्या बड़ी-बड़ी लहरा है, एक तो बड़ा भारी प्रदर्शन होगा और नाना रीति के नाच, नए नए रंग देख पड़ेंगे।
गप्प पंडित : क्यों शास्त्री जी, मुझे यह बड़ा आश्चर्य ज्ञात होता है और इससे परिहासोक्ति सी देख पड़ती है। क्योंकि उसके यहाँ नाच रंग होना सूर्य का पश्चिमाभिमुख उगना है।
गोपाल : पंडित जी! इसी कारण इनका नाम न्यू फांड है। और तिस पर यह एक गुह्य कारण से होता है। वह मैं और कभी आप से निवेदन करूँगा, वा मार्ग में-
बु.भु. : (सर्वभक्ष नाम अपने लड़के को सब व्यवस्था कहकर आप पान पलेती और रस्सी लोटा और एक पंखी लेकर) हाँ भाई, मेरी सब तैयारी है।
माधव गोपाल : चलिए पंडित जी वैसे ही धनतुंदिल शास्त्री जी के यहाँ पहुँचेंगे। (सब उठर बाहर आते हैं।)
चंबूभट्ट : मैं तो भाई जाता हूँ क्योंकि संध्या समय हुआ।
(चला जाता है)
गप्प पंडित : किधर जाना पड़ेगा?
माधव शास्त्री : शंखोध्यारा क्योंकि आजकल श्रावण मास में और कहाँ लहरा? धराऊ कजरी, श्लोक, लावनी, ठुमरी, कटौवल, बोली ठोली सब उधर ही।
गप्प पंडित : ठीक है शास्त्री जी, अब मेरे ध्यान में पहुँचा, आजकाल शंखोध्यारा का बड़ा माहात्म्य है। भला घर पर यह अब कहाँ सुनने में आवेगा? क्योंकि इसमें धराऊ विशेषण दिया है।
गोपाल : आः हमारा माधव शास्त्री जहाँ है वहाँ सब कुछ ठीक ही होगा, इसका परम आश्रय प्राणप्रिय रामचंद्र बाबू आपको विदित है कि नहीं? उसे यहाँ ये सब नित्य कृत्य हैं।
गप्प पंडित : रामचंद्र हम ही को क्या परंतु मेरे जान प्रायः यह जिसको विदित नहीं ऐसा स्वल्प ही निकलेगा। विशेष करके रसिकों को; उसको तो मैं खूब जानता हूँ।
गोपाल : कुछ रोज हमारे शास्त्री जी भी थे, परंतु हमारा क्या उनका कहिए ऐसा दुर्भाग्य हुआ कि अब वर्ष वर्ष दर्शन नहीं होने पाता। रामचंद्र जी तो इनको अपने भ्राते के समान पालन करते थे और इनसे बड़ा प्रेम रखते थे। अस्तु सारांश पंडित वहाँ रामचंद्र जी के बगीचे में जाएँगे। वहाँ सब लहरा देख पड़ेगी और इस मिस से तौ भी उनका दर्शन होगा।
बुभु. : अरे पहिले नवे शौखिनाचे इथे जाउँ तिथे काय आहे हें पाहूँ आणि नंतर रामचंदाकड़े झुकूं।1
माधव शास्त्री : अच्छा तसेच होय आजकल न्यू फांड शास्त्री यानी ही बहुत उदारता धरली आहे बहुत सी पाखरें ही चारती आहेत तो सर्वदृष्ट्रीस पड़तील पण भाई भी आँत यायचा नाहीं। कारण मला पाहून त्यांना त्रास होतो।2
गोपाल. : अच्छा तिथ वर तर चलशील आगे देखा जायगा।3
(सब जाते हैं और जवनिका गिरती है)
(इति) घिस्सधिसद्विज कृत्य विकर्तनी नाम चतुर्थ गर्भाकं
।। प्रथम अंक समाप्त हुआ ।।
















अंडे के छिलके
मोहन राकेश

पात्र
(श्याम, वीना,     राधा,     गोपाल, जमुना, माधव)





परदा उठने पर गैलरी वाला दरवाज़ा खुला दिखाई देता है। बायीं ओर के दरवाज़े के आगे परदा लटक रहा है जिससे पता नहीं चलता कि दरवाज़ा खुला है या बन्द। कमरे में कोई नहीं है।

श्याम सीटी बजाता गैलरी से आता है, पतलून और कमीज़ के ऊपर बरसाती पहने। सिर भीगा है। बरसाती से पानी निचुड़ रहा है।

अन्दर आकर वह इधर-उधर नज़र दौड़ाता है।

      श्याम  :     अरे! कमरा ख़ाली! न भैया न भाभी! (पुकारकर) भाभी!

दूसरे कमरे से वीना की आवाज़।

      वीना  :     कौन?...श्याम?...क्या बात है?

      श्याम  :     इधर आओ तो बताऊँ, क्या बात है।

वीना उधर से आती है।

      वीना  :     तुम्हें भी आकर इस तरह आवाज़ देने की ज़रूरत पड़ती है? इस तरह पुकार रहे थे जैसे किसी पराये घर में आये हो।

      श्याम  :     पराया घर तो लगता ही है, भाभी! तुमने आते ही वह न$क्शा बदला है इस कमरे का कि मेरा अन्दर पैर रखने का हौसला ही नहीं पड़ता। पहले तो इस कमरे की वही हालत रहती थी जो आजकल मेरे कमरे की है। जूते को छोडक़र हर चीज़ या चारपाई पर या मेज़ पर। अब तो मुझे इस कमरे में सिर्फ़ वही एक कोना गोपाल भैया का नज़र आता है जहाँ पतलूनें और कोट एक-दूसरे के ऊपर टँगे हैं। बाकी कमरे की सरकार ही बदल गयी है। भैया की टेबल भी क्या याद करती होगी कि किसी का हाथ लगा है। आजकल ऐसे चमकती है जैसे नयी-नयी पॉलिश होकर आयी हो।

      वीना  :     खड़े गाँव से आये हो जो खड़े-खड़े ही बात करोगे? बरसाती बाहर रख दो, सारा कमरा भिगो रहे हो। फिर बैठकर आराम से बात करो। अभी तुम्हारे भैया आते हैं तो तुम्हें चाय बना देती हूँ।

      श्याम  :     सिर्फ़ चाय? ग़लत बात। ऐसे सुहाने मौसम में सूखी चाय नहीं पी जा सकती। हरगिज़ नहीं।

उसके सिर पर हाथ रखकर उसका मुँह बाहर की तरफ़ कर देती है।

      वीना  :     यह सुहाना मौसम पहले गैलरी में छोड़ जाओ। सारा फ़र्श गीला कर रहे हो।

फिर पीछे से खुद ही उसकी बरसाती उतारने लगती है।

            :     लाओ, उतार दो बरसाती। मैं ही बाहर रख आती हूँ।

श्याम उतारते-उतारते जैसे कुछ ध्यान आ जाने से फिर बरसाती पहन लेता है।

      श्याम  :     भाभी, एक बात कहता हूँ।

      वीना  :     क्या बात? बरसाती तुमने फिर से पहन ली? मैं कहती हूँ, तुम तो बस...।

      श्याम  :     भाभी, बात तो सुन लो। मैं कहता हूँ कि बरसाती आकर एक ही बार उतारूँ। चाय के साथ खाने के लिए भागकर कोई चीज़ ले आऊँ। सूखी चाय का मज़ा नहीं आएगा। इस वक़्त पानी ज़रा थमा है, फिर ज़ोर से बरसने लगेगा।

      वीना  :     फिर वही खाने की बात? कोई ऐसा भी वक़्त होता है जब तुम्हें खाने की बात नहीं सूझती?...अच्छा जाओ, मगर लाओगे क्या?

      श्याम  :     तुम जो कहो ले जाऊँ। इस वक़्त गर्म-गर्म कचौरी और समोसे भी मिल जाएँगे और...।

      वीना  :     और क्या?

      श्याम  :     और...और...कहो तो कोई और अच्छी चीज़ भी मिल सकती है...।

      वीना  :     बरसते पानी में जाओगे तो अच्छी चीज़ ही लाओ। समोसे कचौरी क्या खाओगे?

      श्याम  :     अच्छी चीज़...अं...अं...तो अच्छी चीज़ हो सकती है...अं...।

      वीना  :     जाओ, चार-छह अंडे ले आओ। मैं तुम्हें अंडे का हलुआ बना देती हूँ।

      श्याम  :     शिव, शिव, शिव! किसी और चीज़ का नाम लो, भाभी! इस घर में अंडे का नाम ले रही हो? जाओ, जल्दी से जाकर कुल्ला कर लो। मुँह भ्रष्ट हो गया होगा।

      वीना  :     क्या बात करते हो? (दबे स्वर में) यहाँ रोज़ सुबह अंडे का नाश्ता होता है। तुम्हारे भाई साहब ने यह बिजली का स्टोव किसलिए लाकर रखा है? माँ जी से तो कहा था कि सुबह बेड-टी लेनी होती है, रसोईघर से बनाकर लाने में ठंडी हो जाती है, इसलिए ये सोलह रुपये ख़र्च किये हैं। माँ जी भी भोली हैं, झट मान जाती हैं। कोई इनसे पूछे कि, स्टोव तो बेड-टी के लिए लाये हैं, मगर यह फ्राइंग पेन किसलिए लाये हैं? इसमें क्या दूध गर्म होता है?

      श्याम  :     संयम, संयम, संयम! ज़रा संयम से काम लो, भाभी! चार दिन जो अंडे खा लिये हैं वे छिलकों समेत वसूल हो जाएँगे। अम्मा के कान में भनक भी पड़ गयी तो सारे घर का गंगा-इश्नान हो जाएगा। और तुम देख ही रही हो कि बादलों का दिन है। किसी को कुछ हो-हवा गया तो...।

      वीना  :     भई, तुम लोगों की यह बात मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आती। अगर खाना ही है तो उसमें छिपाने की क्या बात है? सबके सामने खाओ। माँ जी नहीं खातीं, इसलिए रसोईघर की बजाय यहाँ कमरे में बना लेते हैं। और अंडे में जीव कहाँ होता है? जैसे दूध, वैसे अंडा।

      श्याम  :     हरि, हरि, हरि! फिर वही नाम! भाभी, आज इस बरसते पानी में तुम जान निकलवाओगी। तुमसे कोई कुछ नहीं कहेगा। अम्मा मेरे सिर हो जाएँगी कि सब तेरी ही करनी है। तुम खाओ, बनाओ, जो चाहे करो। मगर इस चीज़ का नाम मुँह पर मत लाओ।...लाओ, पैसे निकालो। मैं तुम्हारे रिस्क पर ले आता हूँ। चोरी पकड़ी जाने पर अगर मेरा नाम लिया कि यह लाया है तो मैं साफ़ मुकर जाऊँगा और बेड-टी के साथ फ्राइंग पेन का रिश्ता अम्मा को अच्छी तरह समझा दूँगा। कितने ले आऊँ—चार कि छह?...एकाध मेरे कमरे में भी रखा होगा।

      वीना  :     अच्छा, तो यह बात है। आप अपने कमरे में...।

      श्याम  :     (बात कटकर) फिर कहता हूँ भाभी, कि नाम मत लो। अपने कमरे में न फ्राइंग पेन है न स्टोव, जो कोई चीज़ साबित की जा सके। कच्चा लाते हैं और कच्चा खाते हैं। इसीलिए सुबह दूध की तलब कमरे में होती है। रखने-रखाने का इन्तज़ाम पक्का है। मगर तुम कहो कि अम्मा के सामने भी यह बात ज़ाहिर कर दें तो हरगिज़ नहीं। हमें अपनी अम्मा से भी प्यार है और अपनी $खुराक से भी।

      वीना  :     बहुत अच्छी बात है न! अम्मा की रसोई के बरतन रोज़ भ्रष्ट करते हो, यह अच्छा प्यार है! देख लेना, कल से तुम्हारा दूध का गिलास अलग न रखवा दिया तो...।

      श्याम  :     अच्छी बात है। तुम हमारा दूध का गिलास अलग रखवा देना और हम यह फ्राइंग पेन यहाँ से उठवा देंगे। वैसे चाहो तो अब भी समझौता हो सकता है। तुम ज़बान से खाने का काम लो, शोर मचाने का नहीं, और मैं अभी जाकर आधी दर्जन वह जो तुम कह रही थीं, लाये देता हूँ। इस समझौते की खुशी में पैसे भी अपनी जेब से ख़र्च किये देता हूँ। मं$जूर? अच्छा, टा-टा!

गैलरी की तरफ़ चल देता है।

      वीना  :     साथ थोड़ी किशमिश भी ले आना।

      श्याम  :     ओ.के.। तुम इस बीच चाय का पानी रख दो। आते ही एक प्याली पीऊँगा।

चला जाता है। वीना खूँटी की तरफ़ जाकर वहाँ टँगे हुए कपड़े उतारने और तहाने लगती है।

      वीना  :     मैं भी इस घर में आकर बस यहाँ की-सी हुई जा रही हूँ। दो दिन से कपड़े ही प्रेस नहीं किये।...साहब के कपड़ों का यह ढेर तो कभी ठीक ही नहीं होगा। मैं टाइयाँ और कपड़े अब कुरसियों के पीछे नहीं टाँगने देती, इसलिए हर चीज़ खूँटी पर!

कपड़े उतारते हुए मोज़े का एक जोड़ा नीचे जा गिरता है।

            :     लो, यह पुराना मोज़ा भी खूँटी पर लटकाने की चीज़ है!

कपड़े सन्दूक पर रखकर मोज़ा उठा लेती है। मोज़ा कुछ भारी लगता है, इसलिए उसे हाथ से मलकर देखती है।

            :     तो यह बात है। कल और परसों के छिलके साहब ने मोज़े में भरकर यहाँ लटका रखे हैं। इनको यह कैसी आदत है, यह मेरी समझ में नहीं आता। छिलके नाली में डाल दिए जाएँ, गन्दगी दूर हो। मगर नहीं। ह$फ्ता-भर छिलके इकट्‌ठे करेंगे, फिर डिब्बे में भरकर बाहर ले जाएँगे, जैसे किसी के लिए सौगात ले जा रहे हों।

मोज़ा कोने में डाल देती है।

            :     अच्छा, श्याम के आने तक चाय का पानी तो रख दूँ।

केतली उठाकर बायीं ओर के दरवाज़े की तरफ़ जाती है। परदा उठाने पर दरवाज़ा बन्द मिलता है। किवाड़ खटखटाती है।

            :     राधा जीजी!...राधा जीजी! इतनी देर में दरवाज़ा बन्द करके क्यों पड़ गयीं? ज़रा खोलना, मुझे अन्दर नल से पानी लेना है।

कुछ क्षणों के बाद दरवाज़े की कुंडी खुलती है।

            :     क्या बात है, जीजी? अभी संझा भी नहीं हुई और तुम दरवाज़े बन्द करके पड़ गयीं? मैंने सोचा कि कहीं जेठजी न आ गये हों...।

राधा दरवाज़े से निकलकर अँगड़ाई लेती है, जैसे सचमुच बिस्तर से उठी हो।

      राधा   :     आज दोपहर से ही शरीर कुछ टूट-सा रहा था। मैंने कहा कि थोड़ी देर लेट लूँ, फिर उठकर रोटी-वोटी का धन्धा करना होगा।

      वीना  :     यह लेटने का वक़्त थोड़े ही है, बीबी? बैठो, मैं चाय बना रही हूँ, अभी सब लोग चाय पिएँगे। ये भी दफ्तर से आनेवाले ही होंगे। बैठो, मैं उधर से पानी लेकर आती हूँ।

अन्दर चली जाती है। राधा अनमनी-सी खड़ी रहती है। क्षण-भर बाद अन्दर से वीना के हँसने का स्वर सुनाई देता है। राधा चौंककर उधर देखती है।

      राधा   :     क्या बात है, वीना? अपने-आप ही हँस रही हो?

वीना एक हाथ में पानी की केतली और दूसरे हाथ में एक किताब लिये हँसती हुई उधर से आती है।

      वीना  :     हँसने की बात नहीं है, जीजी?...यह तुम्हारी चन्द्रकान्ता...।

राधा झपटकर किताब उसके हाथ से छीनना चाहती है, मगर वीना उसे झाँसा देकर उसके पास से निकल जाती है। केतली मेज़ पर रखकर वह किताब पीछे छिपा लेती है। राधा पास आकर किताब उससे छीनने का प्रयत्न करती है।

            :     छीनाझपटी में नहीं दूँगी, जीजी? ऐसे माँग लो तो दे दूँगी। मगर इसमें इस तरह छिपाकर पढऩे की क्या बात है? मैंने तो चन्द्रकान्ता, चन्द्रकान्ता सन्तति और भूतनाथ सब पढ़ रखी हैं। जब हम मिडिल में थीं तो स्कूल की लाइब्रेरी से लेकर पढ़ी थीं। इसमें ऐसा तो कुछ भी नहीं है कि इसे तकिये के नीचे छिपाकर रखा जाए और दरवाज़े बन्द करके पढ़ा जाए।

      राधा   :     न भइया, न! हम माँ जी के सामने ऐसी चीज़ कभी नहीं पढ़ सकते। कोई ख़राब बात चाहे न हो, मगर माँ जी देखेंगी तो क्या सोचेंगी कि रामायण नहीं, महाभारत नहीं, दिन-भर बैठकर ऐसे किस्से ही पढ़ा करती हैं। और हम पढ़ते भी कहाँ हैं? हमको तो कौशल्या भाभी ने ज़बरदस्ती दे दी तो हम उठा लाये, नहीं हम तो ऐसी चीज़ कभी नहीं पढ़ते। घर के काम-धन्धे से $फुरसत लगे, तो कुछ पढ़ें भी। और हमारे पास अपनी गुटका रामायण है, कभी-कभी उसमें से ही थोड़ा-बहुत बाँच लेते हैं। तुम जानो इस घर में ये सब पढ़ेंगे तो जान नहीं निकाल दी जाएगी? यह तो कौशल्या भाभी हमारे पीछे पड़ गयीं कि ज़रूर पढ़ो, नहीं तो क्या...!

      वीना  :     यह तो मैं भी कहती हूँ, जीजी, कि ज़रूर पढ़ो। बहुत ही इंट्रेस्टिंग किताब है। ज़रा बचकाना टेस्ट की ज़रूर है, मगर...।

      राधा   :     (चिढक़र) हाँ भई, हम तुम्हारी तरह पढ़े-लिखे तो हैं नहीं...।

      वीना  :     मेरा यह मतलब थोड़े ही है, जीजी! मेरा मतलब तो यह है कि तुम रामायण, महाभारत पढऩेवाली हो, तुम्हें यह किताब ज़रा बचकाना टेस्ट की मालूम होगी।

      राधा   :     वह बात तो है ही।...मगर सच कहें, वीना, तो इसमें भी तो शूरवीरता की ही कहानी है। जिस तरह भगवान राम सीता के लिए वन-वन में मारे-मारे फिरते हैं, उसी तरह कुँअर वीरेन्द्र सिंह चन्द्रकान्ता के लिए तिलिस्म के अन्दर घूमता-फिरता है और...।

      वीना  :     (हँसती हुई) और जिस तरह भगवान राम समुद्र लाँघकर सीता का उद्धार करते हैं, उसी तरह कुँअर वीरेन्द्र सिंह तिलिस्म तोडक़र चन्द्रकान्ता का उद्धार करते हैं। तिलिस्म तोडऩा बल्कि समुद्र लाँघने से ज़्यादा मुश्किल काम है।

      राधा   :     (उत्सुकतापूर्वक) अच्छा, एक बात तो बताओ, वीना! तुमने तो सारी किताब पढ़ी है। अन्त में जाकर वनकन्या का क्या होता है? कुँअर वीरेन्द्र सिंह के साथ उसका ब्याह हो जाता है कि नहीं? मेरा दिल तो कहता है कि हो जाता है।

      वीना  :     हाँ, हाँ, ज़रूर हो जाता है।

      राधा   :     और चन्द्रकान्ता के साथ?

      वीना  :     उसके साथ भी हो जाता है।

      राधा   :     दोनों के साथ ही हो जाता है?

      वीना  :     हाँ भी और नहीं भी।

      राधा   :     हाँ भी और नहीं भी, यह कैसे?

      वीना  :     यही बता दिया तो फिर पढऩा क्या रह गया? जब पढ़ लोगी तो अपने-आप पता चल जाएगा ( किताब देती हुई)। यह किताब ले लो। मगर अभी से दरवाज़ा बन्द करके नहीं पढऩे दूँगी। रात को जब सब लोग सो जाएँगे तो मोमबत्ती जलाकर पढऩा। मैं भी कई दिनों से सोचती थी कि रात को तुम मोमबत्ती जलाकर क्या करती रहती हो!...अभी यहाँ बैठो।

उसे बाँह पकडक़र पलँग पर बैठा देती है और दी हुई किताब भी उसके हाथ से लेकर पलँग पर फेंक देती है।

      राधा   :     अच्छा बीना, ये बाबाजी महाराज कौन हैं?

      वीना  :     कौन-से बाबाजी महाराज?

      राधा   :     वही जो वीरेन्द्र सिंह को आत्महत्या से रोकते हैं।

      वीना  :     तुम अभी तक उसी दुनिया में घूम रही हो, जीजी? अब थोड़ी देर के लिए तो तिलिस्म से बाहर निकल आओ।

केतली स्टोव पर रखकर स्विच ऑन कर देती है। बाहर से गोपाल आता है। वर्षा की फुहार से उसके कपड़े ज़रा-ज़रा भीग रहे हैं।

      गोपाल :     वाह, आज केतली पहले से ही रखी हुई है! बहुत सही अन्दाज़ा है वक़्त का।

      वीना  :     इस ग़लतफ़हमी में मत रहिए कि आपके लिए चाय का पानी रखा गया है। यह केतली श्याम के लिए रखी गयी है। आप आ गये हैं, इसलिए एक प्याली आपको भी मिल जाएगी।

      गोपाल :     क्या बात है, आजकल श्याम पर बहुत मेहरबान हो रही हो? सुना है, देवर-भाभी का रिश्ता बहुत ख़तरनाक होता है।

      वीना  :     बस सुना ही सुना है? जीजी बैठी हैं, ये तो मुझसे ज़्यादा जानती होंगी।

      गोपाल :     देखो, हमारी भाभी के लिए कुछ मत कहना। हमारी भाभी देवी की प्रतिमा हैं, तुम्हारी तरह नहीं हैं। तुम तो दिन-भर बैठी ‘सन्ज़ एंड लव$र्ज’ पढ़ती रहती हो और भाभी पढ़ती हैं रामायण, महाभारत।

      वीना  :     (शरारत के लहजे में) सच?

      गोपाल :     सच नहीं तो क्या? क्यों, भाभी?

      राधा   :     (खिसियायी-सी) भई, हम नहीं कुछ भी पढ़ते। हमें दिन-भर काम से $फुरसत मिलती है जो पढ़ें-पढ़ाएँ? कभी दस मिनट मिल गये तो चार अक्षर बाँच लिये।

      गोपाल :     वक़्त न मिले, यह और बात है। पर पढऩे के लिए तुमने गुटका रामायण रख तो छोड़ी है? मन में भावना होनी चाहिए।

      वीना  :     आज जीजी की गुटका रामायण मैं इधर उठा लायी हूँ। जीजी तो लाने ही न देती थी। अभी-अभी आपके आने से पहले मैं इनसे समुद्र-लंघन की कथा सुन रही थी।

      गोपाल :     यह तो बहुत ही अच्छी बात है। तुमने बी.ए. पास तो किया है, मगर जो विद्या तुम्हें भाभी से मिल सकती है, वह स्कूल-कॉलेजों में नहीं पढ़ाई जाती। क्यों, भाभी?

      राधा   :     भैया, हम किसी को क्या पढ़ाएँगे? हम तो आप ही अनपढ़ हैं। हम तो  वीना के पास इसीलिए आ बैठते हैं कि दो-चार अच्छे अक्षर इससे सीख जाएँ।

      गोपाल :     तुम, और इससे सीखोगी? यह उलटी रीत यहाँ नहीं चल सकती, भाभी! दस्तूर यही है कि बड़ा बड़े की जगह और छोटा छोटे की जगह...। (जेब से सिगरेट की डिब्बी निकालता हुआ) इजाज़त हो तो...अ...अ...यह ज़रा...यह एक सिगरेट सुलगा लूँ। बहुत देर से नहीं पी। (सिगरेट सुलगाता हुआ) बारिश का दिन है, इसलिए तबीयत नहीं मानती।

      वीना  :     आप तो कहते थे कि आप घर में किसी के सामने नहीं पीते।

      गोपाल :     बस सिर्फ़ भाभी के सामने पी लेता हूँ। वह भी इसलिए कि भाभी ने एक बार गैलरी में छिपकर पीते हुए देख लिया था। जब चोरी पकड़ ही ली गयी तो हमने इ$कबाल कर लिया। उसके बाद से भाभी की इतनी मेहरबानी रही कि जब-जब ज़रूरत पड़ती थी, इनके कमरे में छिपकर पी लेते थे। आज पाँच बरस हो गये, मगर मजाल है कि जो भाभी के अलावा किसी को पता तक चला हो।

      वीना  :     हाँ, हाँ, क्यों पता चला होगा? बीबी ने जेठजी को बताया थोड़े ही होगा?

      राधा   :     हमसे कोई कसम उठवा ले जो हमने बताया हो। हमारी यह आदत नहीं है कि इधर की बात उधर और उधर की बात इधर लगाते फिरें। जब एक बार हमने कह दिया कि किसी से नहीं कहेंगे, तो किसी से नहीं कहा। दिल में रखने की बात हम दिल में ही रखते हैं।

      गोपाल :     और क्या? दिल में रखने की बात दिल में रखनी ही चाहिए।...पानी खौल गया कि नहीं?

      वीना  :     बस अभी हुआ जाता है। उतनी देर में श्याम भी आ जाएगा...।

श्याम बरसाती की जेबों में हाथ डाले हुए बाहर से आता है।

      श्याम  :     लो भाभी, ले आया। अब तुम जानो और तुम्हारा काम।

राधा को देखकर ज़रा असमंजस में पड़ जाता है।

            :     अरे, बड़ी भाभी भी यहाँ पर हैं? तब तो...।

गला साफ़ करता हुआ चुप कर जाता है।

      वीना  :     यह अपनी बरसाती तो बाहर उतार दो। अभी तक इससे पानी टपक रहा है।

      श्याम  :     वह बात तो ठीक है भाभी, मगर...।

      वीना  :     मगर क्या?

      श्याम  :     मगर यह कि भाभी वह जो...वह जो तुमने कहा था, वह...।

      वीना  :     लाये नहीं?

      श्याम  :     ल-लाया तो ज़रूर हूँ, म-मगर...।

      वीना  :     मगर जीजी से डर लगता है, यही न? डरने की कोई बात नहीं, जीजी किसी से नहीं कहेंगी। लाओ, निकालो।

      श्याम  :     (ज़रा खँखार कर) और अगर बाद में...?

      वीना  :     नहीं, बाद में कुछ नहीं होता। लाओ, निकालो।

      गोपाल :     क्या चीज़ है जिसके लिए इतनी हील-हुज्जत हो रही है?

      वीना  :     कुछ नहीं, आधा दर्जन अंडे मँगवाए हैं। कह रहा था कि सूखी चाय नहीं पीऊँगा, तो मैंने कहा कि अंडे का हलुआ बनाए देती हूँ।

      गोपाल :     अंडे का हलुआ? यह तुम्हें क्या सूझी है? मैंने तुम्हें अच्छी तरह समझा दिया था, फिर भी तुम...?

      वीना  :     (श्याम से) तुम क्यों काठ से वहाँ खड़े हो? अंडे मुझे दे दो, और बरसाती उतारकर बाहर रख दो (गोपाल से) आपको जब दीदी से सिगरेट का छिपाव नहीं है, तो अंडे का छिपाव रखने की क्या ज़रूरत है? (श्याम से) लाओ श्याम, दो मुझे।

श्याम क्षण-भर की हिचकिचाहट के बाद दोनों जेबों से हाथ निकालता है। उसके एक-एक हाथ में तीन-तीन अंडे हैं। वीना अंडे उससे ले लेती है और वह बरसाती उतारकर गैलरी में छोड़ आता है।

      गोपाल :     (अव्यवस्थित-सा) देखो वीना...मैंने तुमसे कहा था कि घर में...घर में यह चीज़ ठीक नहीं है। आदमी बाहर जाकर खा ले, वह और बात है। मगर घर में...!

      वीना  :     घर में घर के आदमी देख लेंगे, इतनी ही तो बात है न? तो जीजी से तो किसी बात का परदा है नहीं। ये आज न देखतीं तो किसी और दिन देख लेतीं। जब रोज सवेरे...।

      गोपाल :     अललललल, क्या बक रही हो? कुछ होश की दवा करो...।

      राधा   :     सच पूछो गोपाल, तो हमें इस चीज़ का पहले से ही पता है।

श्याम मुसकराता है। गोपाल बेबस-सा आराम-कुरसी पर पड़ जाता है।

      गोपाल :     किस चीज़ का पता है?

      राधा   :     इस चीज़ का कि रोज़ सवेरे चाय के साथ तुम्हारे कमरे में क्या बनता है। तलने की आवाज़ तो छोड़ो, तुम जानो खुशबू भी तो उधर जाती है।

      गोपाल :     किस चीज़ की खुशबू जाती है?

      राजधा :     जो चीज़ बनती है, उसी की खुशबू जाती है, और किस चीज़ की जाएगी?

      वीना  :     लीजिए, और छिपाइए। जीजी तो खुशबू से यह भी पहचान लेती होंगी की किस दिन आमलेट बनता है और किस दिन अंडे फ्राई होते हैं!

      राधा   :     ज़रूर जान लेते हैं। आज सवेरे तुमने आमलेट बनाए थे। बनाए थे कि नहीं?

      वीना  :     जीजी, जब तुम खुशबू पहचानती हो, तब तो ज़रूर तुम भी...।

      राधा   :     (बात काटकर) न। हम कभी नहीं खाते चाहे हमें किसी की $कसम दिला लो। खुशबू तो तुम जानो हर चीज़ की अलग ही होती है। खाया नहीं है तो क्या...!

      श्याम  :     सूँघा भी नहीं है?...बड़ी भाभी, तुम्हारी नाक बहुत तेज़ है।

वीना इस बीच अंडे एक कप में तोडऩे लगती है और छिलके मेज़ पर रखती जाती है।

      राधा   :     बड़ी भाभी की नाक ही नहीं, आँखें भी बहुत तेज़ हैं। तुम अपने कमरे में जो करतूत करते हो, बड़ी भाभी को उसका भी सब पता है।

      श्याम  :     (चौंककर) हें? मेरी किस करतूत का तुम्हें पता है?

      राधा   :     रहने दो, चुप ही रहो तो अच्छा है। मैंने माँ जी से तो नहीं कहा, मगर तुम्हारा दूधवाला गिलास मैंने मेहरी से अलग रखवा रखा है और उसे अलग से मँजवाती हूँ। और सर्दियों में जो तुम दो चम्मच बुख़ार-मिक्स्चर बीच में मिलाया करते थे, उसका भी मुझे पता है।

      वीना  :     बुख़ार-मिक्स्चर? क्या सर्दियों में इसे बुख़ार हो गया था?

      राधा   :     इसी से पूछो जो मिक्स्चर पिया करता था। अलमारी में किताबों के पीछे शीशी लाकर रख रखी थी, पन्द्रह रुपये वाली।

      गोपाल :     (कुछ हैरान होकर) पन्द्रह रुपये वाली!

      राधा   :     और नहीं तो क्या? पूछ लो इससे।

श्याम कानों पर हाथ रखकर सिर झुका लेता है।

      वीना  :     मगर जीजी, वह शीशी पन्द्रह रुपये वाली थी और चौदह रुपये वाली नहीं, इसका तुम्हें कैसे पता चला? यह भी क्या सूँघकर ही...?

      राधा   :     (खिसियानी पडक़र) हमें सूँघने की क्या ज़रूरत है? हम तो ऐसी चीज़ के पास भी नहीं जाते। हमारे भैया को एक बार डॉक्टर ने बतायी थी, सो वे पन्द्रह रुपये में लाये थे।

      गोपाल :     (वीना से) क्यों तुम भाभी को ख़ामख़ाह परेशान करती हो? भाभी बेचारी तो अनजाने भी हमारा हित ही करती हैं। (राधा से) देखो भाभी, अब तुम्हें सब मालूम ही है, मगर भैया को नहीं बताना। उनका स्वभाव तो तुम जानती ही हो। माफ़ कर दें तो बड़ी-बड़ी बात माफ़ कर दें। और नाराज़ हो जाएँ तो बस छोटी से छोटी बात पर...।

      राधा   :     वे नाराज़ होते हैं तो किसी बात पर ही नाराज़ होते हैं। मगर तुम कहते हो कि उन्हें न बताऊँ, तो मैं नहीं बताऊँगी। मगर यह बात ठीक नहीं कि सब दरवाज़े खुले हैं और तुम यहाँ अंडे बना रहे हो। कोई बाहर से आ गया तो हमारा कहना, न कहना सब बराबर है।

केतली में पानी खौलने लगता है। वीना अंडे फेंटती है।

      गोपाल :     यह बात तुम ठीक कह रही हो, भाभी। मैंने कितनी ही बार इससे कहा है कि कुछ बनाना ही हो तो सब दरवाज़े बन्द कर लिया करो। श्याम, बाहर का दरवाज़ा बन्द कर दे।

      वीना  :     श्याम, पहले ज़रा यह केतली स्टोव से उतारकर उधर रख दे और मुझे घी का डिब्बा पकड़ा दे। मैं झट से हलुआ पका दूँ। बनने में तो दो-एक मिनट ही लगेंगे।

श्याम उस तरफ़ चला जाता है और उसका काम करने लगता है।

            :     अलमारी से प्लेटें भी निकाल लो। (राधा से) जीजी, थोड़ा-सा हलुआ तो तुम भी लोगी न?

फ्राइंग पेन स्टोव पर रखकर उसमें घी डालती है।

      राधा   :     (अनमने स्वर में) भैया, हमने कह दिया कि हमने न कभी खाया है और न ही कभी खा सकते हैं। पास बैठे हैं, इसलिए चाय की एक प्याली ज़रूर लेंगे।

वीना अंडे का घोल चीनी मिलाकर फ्राइंग पेन में डाल देती है और जल्दी-जल्दी हिलाने लगती है। श्याम प्लेटें निकालकर लाता है।

      वीना  :     तुमसे कहा था, साथ किशमिश भी लाना, लाये हो?

      श्याम  :     किशमिश तो भूल ही गया, भाभी! कहो तो अब जाकर...!

      वीना  :     अब रहने दो। मुझसे यह नहीं कहना कि हलुआ अच्छा नहीं बना। बग़ैर किशमिश के अंडे का हलुआ...!

दूर जमुना देवी की आवाज़ सुनाई देती है।

      जमुना :     वीना! ओ वीना! गोपाल अभी आया है कि नहीं...?

      गोपाल :     (दबे हुए स्वरों में) श्याम! तुमसे कहा था, दरवाज़ा बन्द कर दो और तुम...!

      श्याम  :     अभी कर रहा हूँ।

जल्दी से जाकर दरवाज़े के किवाड़ मिला देता है और वहीं खड़ा हो जाता है।

      राधा   :     माँ जी आ रही हैं, अब जल्दी से कुछ इन्तज़ाम करो।

      गोपाल :     हाँ, हाँ, जल्दी कुछ इन्तज़ाम करो। यह छिलके...यह हलुआ...।

जल्दी से वीना का जम्पर उठाकर छिलकों पर डाल देता है। और चीनी की एक प्लेट लेकर फ्राइंग पेन को उससे ढँक देता है।

      जमुना :     वीना!...वीना!

दरवाज़े के पास आकर दरवाज़े को धकेलकर खोलती है। श्याम कन्धे हिला करके पास से हट जाता है।

      जमुना :     क्या बात है, इस तरह दरवाज़ा बन्द क्यों कर रखा था? श्याम तो दरवाज़े के आगे ऐसे खड़ा था जैसे अन्दर किसी और को रोक रखा हो। क्या बात है, सब लोग इस तरह चुपचाप क्यों हो गये हो?

      गोपाल :     कु-कुछ नहीं, माँ! तु-तुम अ-आओ, आओ। दरवाज़ा खुला ही था। श्याम तो ऐसे ही वहाँ खड़ा था। आओ, बैठो।

      जमुना :     आज दो घंटे से मेरे कमरे की छत चू रही है। मैंने कितनी बार कहा था कि लिपाई करा दो, नहीं तो बरसात में तकलीफ़ होगी। मगर मेरी बात तो तुम सब लोग सुनी-अनसुनी कर देते हो। कुछ भी कहूँ, बस हाँ माँ, कल करा देंगे माँ कहकर टाल देते हो। अब देखो चलकर, कैसे हर चीज़ भीग रही है!...क्या बात है, सब लोग गुमसुम क्यों हो गये हो?...वीना, तू इस वक़्त यह चम्मच लिये क्यों खड़ी है? और गोपाल, तू वहाँ क्या कर रहा है कोने में?

      गोपाल :     कु-कुछ न-नहीं, माँ, यह...वह...वह वहाँ पर...क्या नाम है उसका...वह...वह...वीना का हाथ ज़रा जल गया था। मैं इसके लिए मरहम ढूँढ़ रहा था।

      जमुना :     हाथ जल गया? कैसे? मैं देखूँ तो।

पास जाकर वीना के दोनों हाथ पकडक़र देखती है।

      वीना  :     नहीं माँ जी, ऐसा कुछ नहीं जला है। ये तो बस यूँ ही...यूँ ही चिन्ता करने लगते हैं। बस ज़रा-सा ही था। हाथ से मल दिया, ठीक हो गया।

      गोपाल :     हाँ, वैसे तो बिल्कुल ठीक हो गया। मगर मैंने कहा कि मरहम मिल जाये तो फिर भी लगा दूँ। कभी वक़्त पर पता नहीं चलता और बाद में तकलीफ़ बढ़ जाती है। कहते हैं कि प्रिवेंशन इज़ बैटर दैन क्योर, मतलब कि बाद में इलाज करने से पहले एहतियात बरतना ज़्यादा अच्छा है। इसलिए मैंने सोचा कि एहतियात के तौर पर थोड़ा मरहम लगा दूँ।

      जमुना :     मगर इसका हाथ जला कैसे? इस वक़्त यह ऐसा क्या काम कर रही थी?

      गोपाल :     कुछ नहीं, कुछ नहीं। कर कुछ नहीं रही थी। श्याम ने कहा था, ज़रा चाय बना दो तो उसके लिए चाय बना रही थी। यूँ चाय बनाने में हाथ जलना नहीं चाहिए, मगर बाज वक़्त होता है। जलना था, सो जल गया। वैसे चिन्ता की कोई बात नहीं। मैं अभी मरहम लगा देता हूँ। और मरहम नहीं भी मिलता तो कोई बात नहीं। अपने-आप ठीक हो जाएगा। बिल्कुल मामूली-सा भी क्या, यही समझो कि जला ही नहीं है। अब तो महसूस भी नहीं होता होगा। क्यों, वीना?

      वीना  :     जी हाँ, बिल्कुल महसूस नहीं होता।

      गोपाल :     और क्या? महसूस होने की कोई बात नहीं थी। तुम नाहक फ़िक्र कर रही हो अम्मा, फ़िक्र करने की कोई बात ही नहीं है। तुम खुद देख रही हो, हाथ बिल्कुल ठीक हो गया है।

      जमुना :     मैं पहले ही कह रही थी कि यह मरदूद बिजली का चूल्हा घर में न लाओ। मगर माँ की बात किसी के कान में जाती हो तो न! यह मरदूद हाथ नहीं जलाएगा, तो करंट मारेगा, करंट नहीं मारेगा तो हाथ जलाएगा। हमारे ज़माने में किसी ने ऐसी चीज़ों का नाम भी नहीं सुना था...यह इसके ऊपर क्या रखा है?

      गोपाल :     यह स्टोव के ऊपर? यह...यह...अम्मा, फ्राइंग पेन है...फ्राइंग पेन...मतलब तलने की वह...क्या कहते हैं, वह...।

      जमुना :     तलने की क्या? क्या बहू यहाँ अलग से तुम्हें चीज़ें तल-तलकर खिलाती है? लगता है, इसमें कोई चीज़ बनाकर रखी है। (पास जाती हुई) मैं भी तो देखूँ कि नयी बहू क्या-क्या बनाकर खिलाती है?

फ्राइंग पेन से प्लेट उठाने लगती है। गोपाल जाकर उसे बीच में ही रोक देता है।

      गोपाल :     न न न न न अम्मा, इसे हाथ मत लगाना, हाथ मत लगाना। तु-तुम आप ही कह रही थीं कि यह हाथ नहीं जलाएगा तो करंट मारेगा, और करंट नहीं मारेगा तो हाथ जलाएगा। ऐसी मरदूद चीज़ का कुछ पता थोड़े ही है, अम्मा! मैं तो पछता रहा हूँ कि क्यों इसे घर में ले आया। वह वापस ले ले तो मैं अभी जाकर इसे वापस कर दूँ। मुझे पता थोड़े ही था कि इसकी वजह से...।

श्याम इस बीच चारपाई से ‘चन्द्रकान्ता’ उठाकर उसके पन्ने पलटने लगता है। एक बार राधा की ओर देखकर वह थोड़ा खँखारता है। राधा गम्भीर मुद्रा बनाए बैठी रहती है।

      जमुना :     मगर यह तो बुझा हुआ है। यह बुझा हुआ भी करंट मारता है क्या?

      गोपाल :     हाँ अम्मा, कभी-कभी यह बुझा हुआ भी करंट मार देता है। इसका कोई भरोसा थोड़े ही है? ऐसी चीज़ से दूर ही रहा जाए तो अच्छा है। कहीं तुम्हारा भी हाथ जल-जला गया तो मुसीबत होगी।

      जमुना :     अच्छा, नहीं हाथ लगाती। मगर बता तो सही कि इस पर छोटी बहू तेरे लिए बनाती क्या-क्या है? इस वक़्त भी तो कुछ बना रखा है।

      गोपाल :     कुछ नहीं अम्मा, इसमें कुछ ख़ास चीज़ नहीं है। वह श्याम ज़रा कह रहा था, तो उसके लिए...।

      श्याम  :     (सहसा चौंककर जैसे सफ़ाई देता हुआ) भैया, मैंने कहाँ कहा था? वह तो खुद भाभी का ही ख़याल था। क्यों, भाभी?

      वीना  :     हाँ, हाँ, मैं कब कहती हूँ कि मैंने नहीं कहा था? ठीक है, मैंने ही तुमसे कहा था...!

राधा सहसा उठकर पास आ जाती है।

      राधा   :     वीना ने भी नहीं, बल्कि हमने कहा था...!

      गोपाल :     (जैसे आसमान से गिरकर) भाभी!

      राधा   :     हाँ, हाँ, ठीक बात तो है। हमीं ने वीना से ज़ोर देकर कहा था कि पुलटिस बनाकर श्याम के बाँध दो। इसे अपने तन-बदन की होश तो रहती नहीं। क्रिकेट खेलने में कहीं टखने पर गेंद लग गयी है। दो दिन से कह रहा है कि चलने में ज़ोर पड़ता है। हमने कहा कि ठंड का दिन है, कहीं दर्द बढ़-बढ़ा गया तो बैठकर दो दिन हमीं से मालिश करवाते रहेंगे। वीना ने पुलटिस बना दी है। अभी बाँध देंगे तो रात तक ठीक हो जाएगा।

गोपाल कृतज्ञता के भाव से राधा की तरफ़ देखता है।

      गोपाल :     यही तो मैं कह रहा था। यह लडक़ा अपनी सेहत का ज़रा ख़याल नहीं रखता। बाद में जब ज़्यादा बिगाड़ हो जाता है तो मुसीबत घर वालों की होती है (श्याम को आँख से इशारा करके) अब पुलटिस बँधवाकर चुपके से लेट रहना। समझे?

      जमुना :     लाओ, मैं ही पुलटिस बाँध देती हूँ। कोई पुराना कपड़ा-वपड़ा हो तो दो। कहीं कोई नयी धोती न फाड़ देना।...यह देखो, नये कपड़ों का क्या हाल कर रखा है? यह रेशमी जम्पर मेज़ पर क्यों डाल रखा है? यह मेज़ साफ़ करने के लिए है?

मेज से जम्पर उठाना चाहती है। मगर गोपाल फिर बीच में आकर रोक देता है।

      गोपाल :     रहने दो, रहने दो अम्मा, क्या गज़ब करती हो? ये काम तुम्हारे करने के हैं जो तुम कर रही हो? मैला कपड़ा है, खूँटी से मेज़ पर गिर गया होगा। अभी वीना उठाकर रख देगी।

      जमुना :     यह मैला कपड़ा है? और वहाँ उतनी दूर खूँटी से कूदकर यहाँ मेज़ पर आ गया? तुम लोगों के लच्छन ज़रा भी मेरी समझ में नहीं आते। नया जम्पर है, अभी दो बार भी नहीं पहना होगा, और इस तरह यहाँ गिरा रखा है! हटो, तुम लोग घर उजाडऩे पर तुले हो, तो मुझे तो घर की चिन्ता है। इतने कपड़े इधर-उधर बिखरे पड़े हैं, इनमें टिड्डियाँ लग जाएँगी तो?

फिर जम्पर उठाने लगती है, मगर गोपाल उसे कन्धे से पकडक़र पलँग की तरफ़ ले चलता है।

      गोपाल :     अम्मा, नहीं लगेंगी टिड्डियाँ। तुम तो ख़ामख़ाह चिन्ता करती हो। यहाँ पलँग पर बैठो और थोड़ी देर आराम करो। बैठो-बैठो...यह इस तरफ़...!

उसे दोनों कन्धों से पकडक़र पलँग पर बिठा देता है।

      जमुना :     हाँ, हाँ, बैठकर आराम करूँ और मेरी जगह काम कोई दूसरा करेगा! घर में करने को इतने काम पड़े हैं। इसे पुलटिस बाँध दूँ तो जाऊँ। दूसरों की मुसीबत कर देता है और आप किताबें पढ़ता रहता है।...ला, मुझे दे यह किताब और यहाँ आकर लेट जा।

उठकर श्याम के हाथ से किताब ले लेती है।

            :     यह कौन-सी किताब है?

      श्याम  :     यह किताब?...यह अम्मा...यह मेरे कोर्स की...मतलब मेरे कोर्स की किताब नहीं है यह...शायद यह भाभी की किताब है...।

      वीना  :     यह जीजी की गुटका रामायण है, माँ जी! जीजी पढ़ती-पढ़ती यहाँ ले आयी थीं।

      श्याम  :     हाँ, हाँ, हाँ! भाभी की गुटका रामायण ही तो है। मैं कह रहा था कि लगती तो गुटका रामायण जैसी ही है।

      जमुना :     मगर गुटका रामायण तो बहुत छोटी होती है। यह तो इतनी बड़ी किताब है।

      श्याम  :     हाँ अम्मा, पहले यह छोटी थी, अब यह—मेरा मतलब है अम्मा कि इसका पहला एडीशन छोटा था, मगर जो नया एडीशन आया है, वह पहले से बड़ा है। इनके साइज़ बदलते रहते हैं, यह कोई ख़ास बात नहीं है। चलो अम्मा, तुम्हें बहुत काम है, मैं तुम्हें तुम्हारे कमरे में पहुँचा दूँ। गैलरी में अँधेरा है, कहीं पैर उलटा-सीधा पड़ गया तो और मुसीबत होगी।

चलने को तैयार हो जाता है।

      जमुना :     पाँव मेरा उलटा पड़ेगा या तेरा, जिसे चोट लगती है? मैं कह रही हूँ लेट जा, और वह मुझे कमरे में छोडऩे जाएगा!

      श्याम  :     अरे हाँ! मेरे तो पाँव में चोट लगी है। मैं यह बात भूल ही गया था। मैं भाभी से पुलटिस बँधवाता हूँ। गोपाल भैया तुम्हें छोड़ आते हैं।

      गोपाल :     हाँ अम्मा, चलो, मैं छोड़ आता हूँ।

      जमुना :     मगर मैं कहती थी कि मैं इसे पुलटिस बाँध देती...।

      गोपाल :     उसकी तुम चिन्ता न करो, अम्मा! वीना बहुत अच्छी तरह बाँध देगी। आओ, मेरा हाथ पकडक़र साथ-साथ आ जाओ। गैलरी में वा$कई बहुत अँधेरा है।

बाँह पकडक़र उसे साथ ले चलता है। उसके बाहर निकलते ही श्याम फ्राइंग पेन पर झपट पड़ता है।

      श्याम  :     भाभी, मैं ज़रा जल्दी से यह पुलटिस निगल लूँ। अगर बड़े भैया भी आ गये तो कहीं सचमुच ही इसे टखने पर न बँधवाना पड़े।

      वीना  :     ठहरो, ज़रा सब्र से काम लो, उन्हें भी आ जाने दो।

      श्याम  :     ग़लत बात है।

चम्मच भर-भरकर हलुआ मुँह में डालने लगता है।

            :     भाभी, सच कहता हूँ कि बग़ैर किशमिश के भी इतना मज़ेदार बना है, इतना मज़ेदार बना है कि जितनी तारीफ़ करूँ थोड़ी है।

गोपाल घबराया-सा जल्दी-जल्दी आता है।

      गोपाल :     इस पुलटिस को जल्दी से इधर-उधर करो, भैया आ रहे हैं।

      श्याम  :     पुलटिस की तो आप ज़रा चिन्ता न करें। इसे तो मैं अभी साफ़ किये देता हूँ, आप छिलकों के इन्तज़ाम की सोचें।

जल्दी-जल्दी खाता है। गोपाल जम्पर उठाकर वीना को देता है।

      गोपाल :     इस जम्पर को इधर रखो और ये छिलके...इन्हें तुम जल्दी से मेरे किसी मोज़े में डाल दो।

      वीना  :     मगर आपके सब मोज़े तो पहले ही पुराने छिलकों से भरे हुए हैं।

गोपाल छिलके मेज़ से उठा लेता है और उन्हें हाथों में लिये हुए असमंजस में इधर-उधर देखता है।

      गोपाल :     तो और किस चीज़ में डाल दें? मेरा टोप ही ले आओ, या जल्दी से मेरे कोट की जेब में भर दो।

सहसा माधव गैलरी से अन्दर आ जाता है।

      माधव :     क्यों भाई, क्या भर रहे हो कोट की जेबों में? कोई मेरे न देखने की चीज़ तो नहीं?

      गोपाल :     (हताश भाव से), आइए, आइए भैया? आ जाइए, आ जाइए। मैं यूँ ही ज़रा इन लोगों से मज़ाक कर रहा था।

      माधव :     मज़ाक कर रहे थे कि छिलके तुम्हारी जेब में छिपा दिये जाएँ!

हँसता हुआ स्टोव की तरफ़ जाता है।

      गोपाल :     जी हाँ...जी नहीं...मज़ाक नहीं...मेरा मतलब यह है कि...!

      माधव :     तुम्हारा मतलब मैं समझता हूँ। और तुम क्या खाकर मुँह पोंछ रहे हो, श्याम बाबू?

      श्याम  :     मैं? मैं भैया...यह मेरे लिए...मेरे लिए भाभी ने पुलटिस बनायी थी...।
      माधव :     पुलटिस बनायी थी? और तुम वह पुलटिस गले से नीचे उतार गये! (हँसकर) खूब! तो आजकल पुलटिस खाने के काम भी आने लगी! भला यह तो बताओ कि किस चीज़ की पुलटिस थी? जिस चीज़ के यह छिलके हैं, उसी की या...?

श्याम बिल्कुल घबरा जाता है।

      श्याम  :     भैया, थी तो यह पुलटिस ही, मगर जल्दी में मैंने...मेरा मतलब है कि मैंने जल्दी में...।

      माधव :     तुमने जल्दी में सोचा कि इसे खा डाला जाय! (फिर हँसकर) बहुत अच्छा किया। बनी हुई चीज़ का कोई तो इस्तेमाल होना ही चाहिए। और तुम गोपाल, तुम ये छिलके जेब में क्यों भरते हो? बाहर जाकर इन्हें नाली में डाल दो। आगे से डिब्बे में भरकर बाहर ले जाने की ज़रूरत नहीं...।

      गोपाल :     मगर, भैया...!

      माधव :     भैया सब जानते हैं, राजा! वे यह भी जानते हैं कि तुम्हारे बायें हाथ की उँगलियाँ किस तरह पीली हुई हैं। यह भी जानते हैं कि श्याम बाबू का दूध कमरे में क्यों जाता है। और यह भी जानते हैं कि उनके सो जाने पर उनकी बीवी मोमबत्ती जलाकर कौन-सी किताब पढ़ा करती है।

सबके मुँह से आश्चर्य से तरह-तरह के शब्द निकलते हैं। माधव हँसता रहता है।

      गोपाल :     भैया, अब आपसे क्या छिपाना है, आप तो सब कुछ जानते हैं। मगर देखिए, अम्मा से नहीं कहिएगा। अम्मा को पता चल गया तो बस किसी की ख़ैर नहीं...।
      माधव :     अम्मा से न कहूँ? (हँसकर) तुम समझते हो कि अम्मा यह सब नहीं जानतीं?

      श्याम और गोपाल : ऐं? अम्मा भी जानती हैं?
      माधव :     क्यों नहीं जानतीं? अम्मा तो शायद मेरी वे बातें भी जानती हैं जो मैं समझता हूँ कि वे नहीं जानतीं। (हँसकर) आज से छिलके नाली में डाल दिया करो, इनके लिए डिब्बा रखने की ज़रूरत नहीं।...और जहाँ तक अम्मा का सवाल है, अम्मा इन्हें नाली में पड़े हुए भी नहीं देखेंगी।

हलकी-हलकी हँसी हँसता रहता है।
समाप्त